Wednesday, 22 January 2020

पढ़िए महर्षि सौभरि जी कौ कथा प्रसंग ब्रजभाषा में


Brahmarshi Saubhari ji ki katha-





आइये आज हम ब्रह्मा जी के 10 मानस पुत्रन में ते ज्येष्ठ पुत्र ब्रह्मर्षि अंगिरा और इनके पुत्र ऋषि घोर  तथा घोर जी के महर्षि कण्व एवं कण्व जी के वंश में उत्पन्न एक अत्यन्त विद्वान एवं तेजस्वी भगवद रूप महापुरुष “ब्रह्मऋषि सौभरि जी” के बारे में पढतें । विन्नै वेद-वेदांगन के अध्ययन-मनन ते ईश्वर, संसार और इनकी वस्तु तथा परमार्थ कूँ अच्छी तरह समझ लियौ हतो। वो हर समय अध्ययन एवं ईश्वर के भजन में लगे रहमत हते, विनकौ मन संसार की अन्य काऊ वस्तून में नाँय लगतौ हतो। एक बार विनके मन में जे इच्छा उत्पन्न भई कै वन में जाय कैं तपस्या करी जाय । जब विनके माता-पिता कूँ या बात के बारे में पतौ चलौ, तौ विन्नै सौभरि जी कूँ समझाते भये कही, “बेटा या समय तुम युवा हो, तुम्हें अपनौ विवाह करकैं गृहस्थ-धर्म कौ पालन करनौ चहियै। चौं कै हर वस्तु उचित समय पै ही अच्छी लगतै, या लैं पहले अपनी जिम्मेदारीन कूँ निभाऔ, फ़िर विनते मुक्त  हैकैं, संसार कूँ त्यागकैं भगवान कौ भजन करियो, वा समय तुम्हें कोई नाँय रोकेगौ। हालांकि अबहु तुम्हारौ मन वैराग्य की ओर है, परन्तु युवावस्था में मन चंचल हैमतौ है, नैक देर में ही डिग जामतौ है। या प्रकार  ते अस्थिर चित्त ते तुम तपस्या एवं साधना कैसैं करैगौ? लेकिन सौभरि जी तौ जैसे दृढ़-निश्चय कर चुके हते। विनके माता-पिता की कोई हु बात विन्नै टस ते मस नाँय कर सकी और एक दिना वे सत्य की खोज में वन की ओर निकर पड़े। चलते-2 वे एक अत्यन्त ही सुन्दर एवं रमणीय स्थान *सुनरख, वृन्दावन* पहुँचे जहाँ पास में ही यमुना नदी बह रही हती और पक्षी मधुर स्वर में कलरव कर रहे हते। ऐसौ शान्त वातावरण देख कैंच या स्थान कूँ विन्नै अपनी तपस्या-स्थली के रूप में चुन लियौ।




ऐसैं ही दिन बीत रहे हते, विनके शरीर पै अब काऊ हु मौसम कौ असर नाँय होंतौ हतो। ढिंग के ही गाँव वारे जो कुछ रूखौ-सूखौ भोजन दै जामते, वा ही ते वो अपना पेट भर लैमत हते। धीरे-2 कब युवावस्था बीत गई और कब बुढ़ापे नै विन पै अपनौ असर दिखानौ शुरु कर दियौ, पतौ ही नाँय चलौ। फ़िर एक दिन अचानक वो ही है गयौ, जो नाँय हैनौ चहियै हतो।

वहीं दूसरी तरफ, …सम्राट मान्धातृ अथवा मांधाता, इक्ष्वाकुवंशीय नरेश युवनाश्व और गौरी पुत्र अयोध्या में राज करते हते । वह सौ राजसूय, अश्वमेध यज्ञों के कर्ता और दानवीर, धर्मात्मा चक्रवर्ती सम्राट् हते । मान्धाता ने शशिबिंदु की पुत्री बिन्दुमती ते विवाह करो हतो । विनके मुचकुंद, अंबरीष और पुरुकुत्स नामक तीन पुत्र और 50 कन्याएँ उत्पन्न भयी हतीं।

राजा मान्धाता ‘युवनाश्व’ के पुत्र हते, युवनाश्व च्यवन ऋषि द्वारा संतानोंत्पति के लैं मंत्र-पूत जल कौ कलश पी गए हते । च्यवन ऋषि नै राजा ते कही कै अब आपकी कोख ते बालक जन्म लेगौ। सौ वर्षन के बाद अश्विनीकुमारन नै राजा की बायीं कोख फाड़कैं बालक कौ प्रसव  करायौ हतो। ऐसी स्थिति में  बालक कूँ पालनौ, एक बड़ी समस्या हती, तौ तबही इन्द्रदेव नै अपनी तर्जनी अंगुरिया वाय चुसामत भए कही- माम् अयं धाता (जे मोय कूँ ही पीबैगौ)। तबही ते बालक कौ नाम मांधाता पड गयौ।

महाराजा मांधाता के समय में ही ब्रह्मर्षि सौभरि जी जल के अंदर तप व चिंतन करते हते | वा जल में ‘संवद’ नामक मत्स्य निवास करतौ हतो । बू अपने परिवार के संग जल में विहार करतौहतो । एक दिना ब्रह्मर्षि सौभरि जी नै तपस्या ते निवृत हैकैं वा मत्स्य राज कूँ वाके परिवार सहित देखकैं अपने अंदर विचार करौ और सोची कै जे मछली की योनि में हु अपने परिवार के साथ रमण कर रह्यौ है चौं ना मैं हु या ही तरह ते अपने परिवार के संग ललित-क्रीड़ाएं करै करंगौ । वा ही समय जल ते निकलकैं गृहस्थ जीवन जीने की अभिलाषा ते राजा मान्धाता के पास पहुँचगे । अचानचक्क आये भए महर्षि कूँ देखकैं राजा मान्धाता आश्चर्यचकित भए और बोले, हे ब्रह्मर्षि! बताऔ मैं आपकी काह सेवा कर सकतौ हूँ, मोकूँ बतल देओ ।  सौभरि जी नै आसन ग्रहण करते भए राजा मान्धाता ते बोले हे राजन! मोय आपकी एक कन्या की आवश्यकता है वाके संग मैं अपनौ विवाह रचानौ चहामतौ हूँ । आपके समान अन्य राजान की पुत्रियां हु हैं परन्तु मैं यहाँ या लैं आयौ हूँ कै कोई हु याचक आपके यहाँ ते खाली हाथ कबहु नाँय लौटै । आपके तौ 50 कन्याएं हैं विनमें ते आप मोय सिर्फ एक ही दै देओ । राजा ने महर्षि की बात सुन व विनके बूढ़े शरीर कूँ देखकैं डरते भए बोले, हे ब्रह्मर्षि! आपकी जे इच्छा हमारे मन ते परे है चौं कै हमारे कुल में लड़की अपनौ वर स्वयं चुनतैं । ब्रह्मर्षि सौभरि सोचबे लगे जे बात केवल टालबे के लैं है और वो जे हु सोच रहे हते कै जे महाराज मेरे जर्जर शरीर कूँ देखकैं भयाभय है रहे हैं । राजा की ऐसी मनोदशा देखकैं वह बोले हे राजन! अगर आपकी पुत्री मोय चाहंगी तौ ही मैं विवाह करंगो अन्यथा नाँय । जे सुनकैं राजा मान्धाता बोले फिर तो आप स्वयं अंतःपुर कूँ चलिए, अंतःपुर में प्रवेश ते पहले ही ब्रह्मऋषि सौभरि जी नै अपने तपोबल ते गंधर्वन ते हु सुन्दर और सुडौल शरीर धारण कर लियौ । ब्रह्मऋषि के संग अंतःपुर रक्षक हतो, वा ते महर्षि ने कही कै अब वो राजा की पुत्रीन ते बोलै, जो कोई पुत्री मोय वर के रूप में स्वीकार करत होय वो मेरौ स्मरण करै इतेक सुनते ही राजा की सब पुत्रीन नै पने-अपने मन महर्षि जी कौ स्मरण करौ और परस्पर जे कहमन लगी जे आपके अनुरूप नाँय हैं या लैं मैं ही इनके संग विवाह करूंगी । देखत ही देखत राजा की पुतत्रीन नै आपस में कलह करबौ शुरू कर दियौ । जे सबरी बात अंतःपुर रक्षक नै राजा मान्धाता कूँ बताई । जे सुनकैं राजा कूँ बड़ौ आश्चर्य भयौ और बोले रक्षक तुम कैसी बात कर रहे हो । राजा अब सबरी बात समझ गए हते । बड़ी धूमधाम ते  50 कन्यान कौ विवाह संस्कार पूरा कियौ और वहाँ ते ऋषि कूँ पचासों पुत्रीन के संग विदा कियौ । ब्रह्मर्षि सौभरि जी विन पचासों कन्यान कूँ अपने आश्रम कूँ लै गये, आश्रम पहुंचते ही विश्वकर्मा कूँ बुलायौ और सब कन्यान के लैं अलग-अलग गृह बनबाबे के लैं कही  और जे हु कही कै चारों तरफ सुन्दर जलाशय और पक्षीन ते गूंजते भए बगीचे होंय । शिल्प विद्या के धनी विश्वकर्मा नै वे सबरी सुविधा उपलब्ध करायीं जो अनिवार्य हती । राज कन्यान के लैं अलग-अलग महल खड़े कर दिए । अब राज कन्यां बड़े मधर स्वभाव ते वहाँ रमण करबे लगीं ।

एक दिना राजा मान्धाता नै अपनी पुत्रीन कौ हाल जानबे के लैं महर्षि के आश्रम पहुंचे और वहाँ जाय कैं अपनी पुत्रीन ते एक-एक कर कैं विनकौ हाल-चाल पूछ्यौ और कही कै पुत्री खुश तौ है ना? तुम्हें काऊ प्रकार कौ कष्ट तौ नाँय है । पुत्रीन नै जवाब दियौ, नाँय मैं बहुत खुश  हूँ बस एक बात है कै मेरे स्वामी सौभरि जी मोय छोड़कैं अन्य बहनन के पास जामत ही नाँय । या ही तरह राजा नै दूसरी पुत्री ते हु वही प्रश्न कियौ वानै हु पहली वारी पुत्री की तरह ही जवाब दियौ | या ही तरह ते राजा मान्धाता कूँ सब पुत्रीन ते समान उत्तर सुनबे कूँ मिलौ । राजा सब कछू समझ गए और ब्रह्मर्षि सौभरि जी के सामने हाथ जोड़कैं बोले महर्षि जे आपके तपोबल कौ ही परिणाम है । अंत में राजा अपने राज्य को लौट आये । महर्षि सौभरि जी के 5000 पुत्र भए । कई वर्षन तक ऋषि सौभरि जी नै अपनी पत्नी और बच्चन के संग सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करौ । अब वे आयगे की सोचबे लगे कै अब विनके पुत्रन के हु पुत्र हुन्गे, या ही तरह अंदर ही अंदर विचार करबे लगे कै मेरी इच्छान के मनोरथ कौ विस्तार होंतौ ही जाय रह्यौ है । जे सब सोचकैं फिर ते विन्नै वैराग्य हैमन लगौ और  धीरे-2 विनकौ मन इन सब ते उचटबे लगौ। विनकौ मन विनते बार-2 एक ही प्रश्न करतौ कै, काह जे ही सांसारिक भोगन के लैं मैंनै तपस्या और कल्याण कौ मार्ग छोड़ दियौ हतो। विन्नै गृहस्थ-जीवन के सुख कूँ हु देखौ हतो और तपस्या के समय की शांति और संतोष कूँ हु। या प्रकार वे गृहस्थमोह सब कछु त्यागकैं अपनी स्त्रीन संग वन की ओर गमन कर गए । और याके बाद फिर ते भगवान् में आशक्त है कैं मोक्ष कूँ प्राप्त कियौ ।

साभार:-
पंडित ओमन सौभरि भुर्रक, भरनाकलाँ, गोवर्धन (मथुरा)

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