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ब्रजमण्डल में मेट्रोन के आवे-जाबे की घोषणा ब्रजभाषा में कैसैं होयगी

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Thursday, 16 January 2020

आऔ हम सब मिलकैं ब्रजभाषा और ब्रज संस्कृति कूँ बचामें

*राधे राधे ब्रजवासियो*




अपनी भाषा और संस्कारन्नै कबहु मत भूलौ, जो अपनी भाषाऐ, अपने वार-त्यौहारानन्नै, अपनी माटी कूँ और अपने रीति/रिवाजन्नै भूल जामतौ है बू एक पेड़ ते टूटी भयी डार की तरह होंतौ है।
आज के या अधुनिक काल के समय में हम अपनी भाषा, रीति-रिवाज तीज त्योहार सबन कूँ भूलत जाय रहे हैं और सोचतैं कै हम बहुत आगे जांगे।
हर राज्य, भाषा और क्षेत्र बारे अपनी भाषा, रीति रिवाज और पहिचान कूँ संग लैकैं चलतौ है और अपने मूल चीजन कूँ नाँय छोड़त जबही बे सब भाषा जीवित हैं।
जैसैं बंगाली, पंजाबी, मराठी, उड़िया, आसामी, गुजराती, नेपाली, सिंधी, तमिल, तेलगी, कन्नड़, मलयालम औऱ मणिपुरी आदि निबक भाषा । पर हमनैं अपनी ब्रज भाषा और ब्रज के सब रीति-रिवाज लगभग छोड़ दिये हैं।
जैसैं पहले की सी होरी, दिवारी, सनूने(रक्षा बंधन), सावन के झूला, तीज, मावस, पूण्यों, सीरौ-बासौ ।
अब तौ हमारे आपस के ब्यौहार सब खतम होंत जाय रहे हैं।
अब आदमी ज्यादा आधुनिक बनवे लग गयौ है। ब्याह में चाहें अन्य कार्यक्रमन में पातर, कुल्हड़, सरैया की पाँत खतम करिकैं बफर सिस्टम जैसी नयी व्यवस्था कूँ ज्यादा महत्त्व दैमतैं औऱ सबते जरूरी ब्याह, सगाई सब कछु एक ही दिना में कर दैमतैं, जाते सब रीति-रिवाज और नेग धरे के धरे रह जामतैं । मेरौ सबते हाथ जोड़ कैं निवेदन है कै अपनी भाषा और संस्कृति की ओर दुबारा लौटॉ व अपनी "ब्रजवासी पहिचान" कूँ बनाय रखौ।

जैसौं कै आप सबन कूँ पतौ है कै आाधुनिक हिन्दी की जननी बृजभाषा ही है । पर आज के बढ़ते आधुनिकवाद में ब्रजभाषा लुप्त होंत जाय रही है जबकि या भाषा में अनेक कविन नैं जैसैं कैं सूरदास, रसखान, तुलसीदास और रहीम आदिन निबक रचना करीं हैं । बिना जमुना मैया की शुद्धता और बाँधन के कारण, जल कमी ते उद्योग, आवास और सड़क, भूमि अधिगृहण और अति तेजी ते आधुनिकतावाद के बढ़वे ते ब्रज अपने मार्ग ते भटकत जाय रह्यौ है ।
अतः सबन् ते निवेदन है कै बंशी वारे के या ब्रज कूँ बचाबे में अपनौ सहयोग करैं
                                जय श्री कृष्णा!!!

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भाषा यानी अभिव्यक्ति कौ माध्यम। संसार में हजारन भाषाएं बोली जामतैं। राष्ट्रीय स्तर पै प्रयोग करी जाबे वारी भाषान में फिर हु ठहराव है, लेकिन जो विलुप्त भाषाएं हैं वे ज्यादातर क्षेत्रीय स्तर की हैं।
 गांवन ते पलायन, शहरन में बढ़ती भयी आबादी, भाषान की क्लिष्टता, भीषण अकाल, महामारी आदि ऐसे कई कारणन ते कैऊ भाषाएं लुप्त हैं गईं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पै करी जा रही साजिशन के कारण हु कैऊ आंचलिक व लोक भाषाएं दम तोड़बे के कगार पै हैं। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलन में जब कोई बच्चा हिंदी या अपनी क्षेत्रीय भाषा कौ प्रयोग करतौ है तो बाकी वाय सजा दयी जामतै। अब जरा सोचौ कै जो बच्चा अपनी भाषा के प्रयोग के लैं सजा पाबैगौ, काह बू अपनी भाषा ते कट नाय जाएगौ। 
परिणामतः हौले- हौले मातृभाषा दम तोड़ देगी। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुमान के अनुसार, वर्ष 2021 तक 96 प्रतिशत भाषाएं और विनकी लिपि समाप्त है जांगी। विश्व में दुर्लभ श्रेणी की भाषान की संख्या 234 तक पहुंच चुकी है तथा 2500 ते हु अधिक बोलिय समाप्त हैबै के कगार पै हैं। भाषा के संग-संग वा ते जुड़ी जानकारी प्रकृति, रहस्य, जीवन शैली, संस्कृति आदि कौ हु अंत है जामतौ है। ईसाई और यहूदीन के धर्मग्रंथन की मूल भाषा हिब्रू हती जो अब प्रयोग में नाय है। याय तरह भारत में पाली, प्राकृत सहित कई भाषाओं ने अपनौ अस्तित्व खोयौ है। सिंधु घाटी की लिपि आज तकहु नाय पढ़ी जा सकी, जो काऊ युग में निश्चय ही जीवंत भाषा रही हुंगी। क्षेत्रीय, राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनगिनत भाषाएं लुप्त है गई हैं या विलुप्तप्राय हैं। जब हु कोई भाषा अपने सहज स्वाभाविक अर्थ कू छोड़कैं विशेष अर्थ कू व्यक्त करबे लगतै, तो बू क्लिष्ट बन जामतै और यही क्लिष्टता वाके जनसामान्य ते कटबे की वजह बनतै। उदाहरण के तौर पर संस्कृत, ग्रीक, लैटिन आदि भाषाएं।

या ही तरह महात्मा बुद्ध और महावीर की भाषा प्राकृत और पाली रही। इन्हीं भाषान में उनके लेख व उपदेश हु है, जो कि क्लिष्ट हैबे के कारण आम जन ते कट गए। संस्कृत भाषा हु एक सीमित वर्ग की भाषा रही है। लैटिन, ग्रीक जैसी भाषाएं अपनी क्लिष्टता के कारण अवरुद्ध है गईं। इन भाषान की लिपियां तो हैं, मगर भाषा लुप्त सी है गईं, कुछ परिवर्तित हो गईं। लुप्त हैमत भाषान के बाबत अबू अब्राहम ने द ट्रिब्यून में लिखौ कै संस्कृत मृत भाषा नाय है। यह बात सही है कै संस्कृत भाषा कौ उपयोग रोजमर्रा के जीवन में लंबे समय तक नाय है सकौ। फिर हु जे भाषा काफी शक्तिशाली है और शास्त्रन में विद्यमान है। जे भाषा या ही मारें जीवित है कै अधिकतर क्षेत्रीय भाषाएं संस्कृत के शब्द और मुहावरेन कू आत्मसात करती हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा 2008 में किए गए अध्ययन के अनुसार विश्व में लगभग 6780 भाषाएं बोली जाती हैं और इनमें 6432 ऐसी भाषाएं हैं, जिन्हें 1.50 करोड़ लोग बोलते हैं। 585 करोड़ लोग ऐसे हैं जो 268 भाषान कौ प्रयोग करतैं। ग्लोबलाइजेशन के दौर में 6432 भाषान के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है। वर्ष 2021 तक 96 भाषाएं और विनकी लिपियां समाप्त है जांगी। विश्व में 234 भाषाएं ऐसी हैं जो कि दुर्लभ श्रेणीन में आ चुकी हैं तथा 2500 ते हु अधिक भाषाएं एवं बोलियां समाप्ति की कगार पै हैं।

लुप्त होती भाषान कू ध्यान में रखते भए चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ के हिंदी विभाग नै एक सराहनीय कदम उठायौ है। उप्र के मेरठ के बावली गांव के ठेठ मुहावरे अब बावली तक सीमित नांय रहंगी। इन क्षेत्रन में प्रचलित ठेठ लोकोक्तियां और मुहावरे अब सहेजे जायेंगे ताकि याकी जीवंतता बनी रहे। 
याय हिंदी विभाग एक किताब कौ रूप दैकैं कोर्स में शामिल करबे वारौ है। या संदर्भ में पांच सौ ते अधिक लोकोक्तियां और मुहावरे एकत्र करे जा चुके हैं। वैसे, लुप्त हो रही भाषान के बारे में सोचकैं मन व्याकुल है उठतौ है, चौ कै भाषा का सीधौ-सीधौ लगाव वा क्षेत्र के संस्कृति, परिवेश, अस्मिता, खान-पान और रहन-सहन ते है। भाषा अपने आप में अपने समाज कौ प्रतिबिंब हैमतौ है। कुल मिलाकर कहें, तौ भाषा अपने आप में प्रतिबिंब हैं। लुप्त हो रही भाषान पर सिर्फ चिंता व्यक्त न कर कैं हमें चहिए कै ऐसी भाषान कू सृजनात्मक तरीके ते आत्मसात करें। लुप्त हो रही भाषाओं के कारण ही देश-दुनिया में सामाजिक प्रभुत्व खंडित है रहयौ है। भाषा संरक्षण के लैं वैचारिक पहल की आवश्यकता है।
बहौत से देशन नै अपनी जमीन की भाषान कू अहमियत दैकैं वहां के शासन, न्यायिक कार्य, शिक्षा, अनुसंधान, ज्ञान-विज्ञान की भाषान के रूप में विकसित कर दियौ है। हमारे यहां ऐसौ चौं ना हो हैबै? हम मातृभाषाओं को शिक्षा कामाध्यम बनाने की शिक्षाविदों की राय कू चौं नहीं अंगीकार करतें? हम उलटी गंगा बहा रे हैं।

दुनिया में कई स्रोतन ते विकसित ज्ञान भाषांतरण के माध्यम से वामें मिल जाने ते अद्यतन ज्ञान के भंडार के रूप में वाकौ विकास आदि कई कारणन ते अंग्रेजी कौ ज्ञान व्यर्थ नाय कहयौ जा सकै। काऊ भाषा या भाषान कौ ज्ञान कबहु व्यर्थ नाय जाय। या दृष्टि से दुनिया की काऊ हु भाषा के सीखबे के प्रति हमारी उदारता स्वागत-योग्य है।

मातृभाषा के माध्यम ते शिक्षा के पक्ष में कई वैज्ञानिक तर्कों के बावजूद हम अंग्रेजी माध्यम की ताहि अधिक आकर्षित हैं। प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा के माध्यम ते दैबे की वैज्ञानिकता के पक्ष में कई विभूतीन द्वारा दिए गए तर्कों और आग्रहन कू हमनै नजरअंदाज कियौ है। बढ़ते कानवेन्टों (शिक्षा कौ निजीकरण!), सरकारों का अंग्रेजी माध्यम की ओर आकर्षण (शिक्षा कौ व्यापार?) आदि नै दासता की शिक्षा कू ही मजबूत कियौ है। गणित और विज्ञान की शिक्षा मातृभाषान के माध्यम ते दैबे ते भारत की वैज्ञानिक प्रगति कू दुनिया में अव्वल देखबे की चेतना जगावे वारे अब्दुल कलाम अमर है गए हैं। वर्ष 1999 में यूनेस्को ने हर वर्ष 21 फरवरी कू अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनावे की सिफारिश की हती। यूनेस्को द्वारा जे निर्णय बांग्लादेश में मातृभाषा के माध्यम कू लै कैं जो बलिदान 1952 में भए हते विनकी स्मृति कू सार्थकता प्रदान करबे कौ प्रयास हतो। शांति और बहुभाषिकता कू बढ़ावा दैबे के लैं वर्ष 2000 से अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जा रहयौ है। 16 मई 2009 कू संयुक्तराष्ट्र महासभा नै संकल्प पारित कियौ हतो और अपने सदस्य-राष्ट्रन ते आग्रह कियौ हतो कै ‘दुनिया के लोगन द्वारा प्रयोग की जाबे वारी सबरी भाषान के संरक्षण कू बढ़ावा दें।’


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अपनी भाषा कूँ हम कैसैं अच्छे ते सीखें-

नयी भाषा सीखने के लिए नए-नए शब्दों को याद करना ही काफी नहीं। इसके लिए नए तरीके से सोचना भी ज़रूरी है, क्योंकि हर भाषा में तर्क करने और हँसी-मज़ाक करने का तरीका अलग-अलग हो सकता है। इसके अलावा, नए शब्दों का सही उच्चारण करने में जीभ का अलग तरह से इस्तेमाल करना पड़ता है। जब एक व्यक्‍ति कोई नयी भाषा सीखता है, तो शुरू-शुरू में उसे शायद कुछ भी समझ में न आए।  लेकिन जैसे-जैसे वह भाषा को गौर से सुनता है, तो वह एक-एक शब्द को और उस भाषा के बोलने के तरीके को समझने लगता है।

 भाषा बोलने में माहिर लोगों की नकल कीजिए। नयी भाषा सीखनेवालों को उकसाया जाता है कि वे सुनने के अलावा, उस भाषा में माहिर लोगों के उच्चारण और बोलने के तरीके की नकल करें। इससे वे नयी भाषा को गलत लहज़े में बोलने से दूर रहेंगे और दूसरे उनकी बात आसानी से समझ पाएँगे। जब शुद्ध भाषा की बात आती है तो हमें उन लोगों से सीखना चाहिए, जो इस भाषा को “सिखाने की कला” में माहिर हैं।
मुँह-ज़बानी याद कीजिए। भाषा सीखनेवालों को कई बातें मुँह-ज़बानी याद करनी पड़ती हैं, जैसे नए-नए शब्द और छोटे-छोटे वाक्य। उसी तरह, मसीहियों के लिए शुद्ध भाषा सीखने में कई बातों को मुँह-ज़बानी याद करना बहुत मददगार साबित हो सकता है । पहले लोग भजनों को मुँह-ज़बानी याद करते थे। आज भी लोग कम उम्र में ही धर्म ग्रंथ श्लोकों को शब्दश याद कर लेते हैं। हमारे बारे में क्या? क्या हम भी अपनी याददाश्‍त का बढ़िया इस्तेमाल कर सकते हैं? कुछ लोग नयी भाषा का मन-ही-मन अभ्यास करते हैं। लेकिन इससे अच्छे नतीजे नहीं मिलते। शुद्ध भाषा सीखते वक्‍त कभी-कभी हमें धीमी आवाज़ में खुद को पढ़कर सुनाना चाहिए, ताकि हम जो पढ़ रहे हैं उस पर ध्यान लगा सकें।


गौर से सुनिए। जब एक व्यक्‍ति कोई नयी भाषा सीखता है, तो शुरू-शुरू में उसे शायद कुछ भी समझ में न आए। लेकिन जैसे-जैसे वह भाषा को गौर से सुनता है, तो वह एक-एक शब्द को और उस भाषा के बोलने के तरीके को समझने लगता है। सुनने के लिए ध्यान लगाना ज़रूरी है। हालाँकि यह आसान नहीं, मगर इसमें हम जो मेहनत करते हैं, वह वाकई रंग लाती है। बोलने में माहिर लोगों की नकल कीजिए। नयी भाषा सीखनेवालों को उकसाया जाता है कि वे सुनने के अलावा, उस भाषा में माहिर लोगों के उच्चारण और बोलने के तरीके की नकल करें। इससे वे नयी भाषा को गलत लहज़े में बोलने से दूर रहेंगे और दूसरे उनकी बात आसानी से समझ पाएँगे। जब शुद्ध भाषा की बात आती है तो हमें उन लोगों से सीखना चाहिए, जो इस भाषा को “सिखाने की कला” में माहिर हैं।  उनसे मदद माँगिए। और गलती करने पर जब आपको सुधारा जाता है, तो खुशी-खुशी उसे कबूल कीजिए ।

भाषा बोलने के लिए सच्चाई पर विश्‍वास करना और इसके बारे में दूसरों को सिखाना ज़रूरी है। लेकिन इसमें परमेश्‍वर के उसूलों और सिद्धांतों के मुताबिक अपने चालचलन को ढालना भी शामिल है। इसके लिए हमें दूसरों की नकल करनी चाहिए, जिसमें उनके जैसा विश्‍वास और जोश दिखाना भी शामिल है।
भाषा सीखनेवालों को कई बातें मुँह-ज़बानी याद करनी पड़ती हैं, जैसे नए-नए शब्द और छोटे-छोटे वाक्य। उसी तरह, मसीहियों के लिए शुद्ध भाषा सीखने में कई बातों को मुँह-ज़बानी याद करना बहुत मददगार साबित हो सकता है।

 शुद्ध भाषा सीखते वक्‍त कौनसी बात हमारी मदद कर सकती है? खुद को पढ़कर सुनाइए। कुछ विद्यार्थी नयी भाषा का मन-ही-मन अभ्यास करते हैं। लेकिन इससे अच्छे नतीजे नहीं मिलते। शुद्ध भाषा सीखते वक्‍त कभी-कभी हमें धीमी आवाज़ में खुद को पढ़कर सुनाना चाहिए, ताकि हम जो पढ़ रहे हैं उस पर ध्यान लगा सकें। हम कैसे शुद्ध भाषा का “व्याकरण” सीख सकते हैं? व्याकरण पर ध्यान दीजिए। नयी भाषा सीखने के दौरान, व्याकरण यानी शब्दों को जोड़कर कैसे वाक्य बनते हैं इस पर और व्याकरण के नियमों पर भी ध्यान देना फायदेमंद होता है। इससे हम समझ पाते हैं कि वह भाषा कैसे बोली जाती है और हम उस हिसाब से उसे सही-सही बोल पाते हैं। जिस तरह हर भाषा का अपना व्याकरण होता है, उसी तरह शुद्ध भाषा का भी अपना व्याकरण यानी ‘खरी बातों का एक आर्दश’ होता है। हमें किस समस्या से निपटना पड़ सकता है और हम यह कैसे कर सकते है?

सीखते रहिए। एक इंसान शायद नयी भाषा में लोगों के साथ थोड़ी-बहुत बातचीत करना सीख ले। मगर फिर वह उस भाषा को आगे सीखना बंद कर देता है। शुद्ध भाषा सीखनेवालों के साथ भी कुछ ऐसा ही हो सकता है। याद करने का एक पक्का समय तय कीजिए। बिना शेड्‌यूल बनाए जब तब अध्ययन करना और वह भी घंटों तक ऐसा करना, फायदेमंद नहीं होता। इसके बजाय, नियमित तौर पर और थोड़े समय के लिए अध्ययन करना ज़्यादा अच्छा होता है। ऐसे वक्‍त पर अध्ययन कीजिए जब आपका दिमाग चुस्त रहता है और आपका ध्यान आसानी से नहीं बँटता। नयी भाषा सीखना जंगल में रास्ता बनाने जैसा है। जितना ज़्यादा आप उस रास्ते से आते-जाते हैं, उतना ज़्यादा उस पर चलना आसान होता है। लेकिन अगर आप कुछ समय के लिए उस रास्ते से जाना बंद कर दें, तो बहुत जल्द उस पर झाड़ियाँ उग आएँगी। इसलिए शुद्ध भाषा सीखने में लगन से और नियमित तौर पर अध्ययन करना बेहद ज़रूरी है। नयी भाषा सीखनेवाले कुछ लोग उसे बोलने से हिचकिचाते हैं, क्योंकि या तो उन्हें शर्म आती है या वे गलती करने से डरते हैं। और इस वजह से वे भाषा जल्दी नहीं सीख पाते। भाषा सीखने के बारे में यह पुरानी कहावत एकदम सच है, “करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।” दूसरे शब्दों में कहें तो जितना ज़्यादा एक व्यक्‍ति नयी भाषा बोलने का अभ्यास करेगा, उतनी आसानी से वह उसे बोल पाएगा। उसी तरह, हमें भी हर मौके पर शुद्ध भाषा बोलनी चाहिए।

आम तौर पर चाहे हम अलग-अलग भाषाएँ क्यों न बोलते हों,
उदाहरण देकर समझाइए कि नियमित तौर पर अध्ययन करना क्यों ज़रूरी है? अध्ययन करने का एक पक्का समय तय कीजिए। बिना शेड्‌यूल बनाए जब तब अध्ययन करना और वह भी घंटों तक ऐसा करना, फायदेमंद नहीं होता। इसके बजाय, नियमित तौर पर और थोड़े समय के लिए अध्ययन करना ज़्यादा अच्छा होता है। ऐसे वक्‍त पर अध्ययन कीजिए जब आपका दिमाग चुस्त रहता है और आपका ध्यान आसानी से नहीं बँटता। नयी भाषा सीखना जंगल में रास्ता बनाने जैसा है। जितना ज़्यादा आप उस रास्ते से आते-जाते हैं, उतना ज़्यादा उस पर चलना आसान होता है। लेकिन अगर आप कुछ समय के लिए उस रास्ते से जाना बंद कर दें, तो बहुत जल्द उस पर झाड़ियाँ उग आएँगी। इसलिए शुद्ध भाषा सीखने में लगन से और नियमित तौर पर अध्ययन करना बेहद ज़रूरी है।



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  यदि हमें भारत को विश्व में सिरमौर बनाना है, तो अपनी भाषा खासकर ¨हदी को मजबूत करना होगा। बच्चे भाषा का संस्कार पहले घर से ही सीखते हैं, फिर स्कूल में। जिस तरह से हमारा देश प्रगति कर रहा है, उसी प्रकार से हमें अपने संस्कार को आगे बढ़ाना चाहिए। कहने को हमारा देश आधुनिक होता जा रहा है। सोशल मीडिया दिनचर्या का हिस्सा बन गई है। बच्चों के साथ बड़े भी अपनी भाषा में बदलाव लाते जा रहे हैं। इसका सीधा प्रभाव हमारे संस्कारों पर पड़ रहा है। फेसबुक, वाट्सअप आदि सोशल मीडिया एप पर लोग मोबाइल पर कम शब्दों की सांकेतिक भाषा का प्रयोग कर बातचीत की आदत अपना रहे हैं। धीरे धीरे यह आदत हमारे स्वभाव और फिर संस्कार का हिस्सा बन जाती है। यदि हम सही प्रकार से भाषा का प्रयोग नहीं करेंगे, तो हम घर और स्कूल के माध्यम से भी बच्चों को संस्कार नहीं दे पाएंगे। हमें अपनी भाषा को सर्वोच्च स्थान देना चाहिए।

अशुद्धियों के प्रदूषण से बचाएं भाषा-
भाषा के प्रति लोगों का नजरिया बेहद सामान्य हो गया है। लोगों ने भाषा को अपनी सुविधा के अनुसार ढाल लिया है। इससे फौरी तौर पर अभिव्यक्ति को विस्तार मिल जाता है, लेकिन भाषा अशुद्ध होती जा रही। आने वाले समय में नई पीढ़ी के लिए गंभीर समस्या होने वाली है। इसलिए इसे एक चुनौती के रूप में लेने का वक्त आ गया है। हमें भाषा को अशुद्धियों के प्रदूषण से बचाने का संकल्प लेना होगा। यहां तक कि भाषा का ऐतिहासिक, तुलनात्मक आदि अध्ययन भी भाषा के जरिये ही संभव है।

भाषा सामाजिक संपत्ति-
भाषा एक सामाजिक संपत्ति है। इससे शिक्षित समाज का भी विकास, नव निर्माण संभव है। भौगोलिक, सांस्कृतिक और व्यवहारपरक विभिन्नता के कारण भाषा का प्रयोग भी सीमित व विशिष्ट होता है। इसके जरिये ही समाज भी सीमित विशिष्ट बनता है। जातीयता, प्रांतीयता का भी बोध होता है।

सांस्कृतिक सभ्यता का सरंक्षण-
पीढ़ी दर पीढ़ी सांस्कृति, सभ्यता व भाषा के सभी तत्व संरक्षित रहते हैं। किसी भी सांस्कृतिक वर्ग की ललित और उपयोगी कलाओं का भंडार भाषा के माध्यम से ही स्थित व सुरक्षित रहता है। विश्व में विज्ञान से लेकर भाषा विज्ञान तक के नए अविष्कार व शोध होते रहते हैं। अध्ययन व शोध लेखन में नए-नए शब्द गढ़े व रचे जाते हैं। इन शब्दो से भाषा के द्वारा सामाजिक व वैज्ञानिक विकास की अभिव्यक्ति होती है। मनुष्य को सभ्य व पूर्ण बनाने के लिए शिक्षा जरूरी है। सभी प्रकार की शिक्षा का माध्यम भाषा ही है।

मानवीय मूल्यों का अहसास कराती भाषा-
विश्व के हितों को ध्यान में रखते हुए जो ¨चतन, मनन गहराई से किया जाता है, वह दार्शनिक ¨चतन कहलाता है। यहां बताना चाहूंगी कि गांधी जी स्वयं अंग्रेजी के प्रभावी ज्ञाता व वक्ता थे। गांधी के विचार शिक्षा के संदर्भ में स्पष्ट थे। उनके अनुसार, हजारों व्यक्तियों को अंग्रेजी सिखलाना उन्हें गुलाम बनाने जैसा है। उनका मानना था कि कि विदेशी भाषा के माध्यम से दी गई शिक्षा बच्चों पर अनावश्यक दबाव डालने, रटने और नकल करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करती है। मौलिकता का अभाव पैदा होता है। जबकि मातृभाषा संस्कार के साथ नैतिक व मानवीय मूल्यों की भी शिक्षा देती है।

आधुनिकता की आंधी में हम अपनी भाषा को दिन ब दिन छोटा करते जा रहे हैं। इस कारण हमारे संस्कार भी सिमट रहे हैं। हमें भाषा का स्वरूप नहीं बिगाड़ना चाहिए। भाषा के परिष्करण, परिमार्जन पर विशेष ध्यान देना चाहिए। इससे हमारा ज्ञान भी बढ़ेगा और संस्कार भी दिखेंगे। अभिव्यक्ति का माध्यम है भाषा। जितनी अच्छी भाषा होगी, उतनी ही प्रभावी हमारी अभिव्यक्ति। मेरा मानना है कि भाषा को मूल स्वभाव में ही बोलना चाहिए, लिखना चाहिए। आजकल लोग भाषा को बिगाड़ रहे हैं। कम शब्दों के चक्कर में ज्ञान भी कम करते जा रहे, जो बड़ी समस्या बन रही है। हमें भाषा के संस्कार को समझना, अपनाना होगा।

भाषा वह साधन है, जिसके द्वारा हम अपने विचारों का आदान प्रदान करते हैं। भाषा से ही हम किसी को प्रभावित कर सकते हैं। अच्छे शब्दों के प्रयोग व प्रभावी शैली में जब हम बात करते है तो उसमें हमारे संस्कार भी झलकते हैं। जीवन में यदि अच्छी भाषा का प्रयोग सीख लिया तो मानो जग जीत लिया। गांधीजी ने भी यही शिक्षा दी, बुरा न बोलो, बुरा न सुनो, बुरा न देखा।¨हदी है हम वतन हैं, ¨हिन्दुस्तान हमारा..इन पंक्तियों में कवि ने ¨हदी भाषा का महत्व समझाने की कोशिश की। भाषा के संस्कार में बड़ों की अहम भूमिका होती है। घर, परिवार, विद्यालय में जैसा बोला जाता, लिखा जाता, उसे ही बच्चे सीखते हैं। इसलिए बड़ों की बड़ी जिम्मेदारी है भाषा के संस्कार निखारें। व्यक्तित्व को निखारती है भाषा। सफलता की तरह भाषा का भी शार्टकट नहीं होना चाहिए। प्रत्येक शब्द, वाक्य को समझकर ही बोलना, लिखना चाहिए। रामचरित मानस की चौपाई और गीता के श्लोक को देखें, ऐसी भाषा का प्रयोग किया गया तो कि सीधे मन मस्तिष्क में उतर जाए। ऐसी भी भाषा को आत्मसात करने की जरूरत है।

सांस्कृतिक सभ्यता का सरंक्षण-
पीढ़ी दर पीढ़ी सांस्कृति, सभ्यता व भाषा के सभी तत्व संरक्षित रहते हैं। किसी भी सांस्कृतिक वर्ग की ललित और उपयोगी कलाओं का भंडार भाषा के माध्यम से ही स्थित व सुरक्षित रहता है। विश्व में विज्ञान से लेकर भाषा विज्ञान तक के नए अविष्कार व शोध होते रहते हैं। अध्ययन व शोध लेखन में नए-नए शब्द गढ़े व रचे जाते हैं। इन शब्दो से भाषा के द्वारा सामाजिक व वैज्ञानिक विकास की अभिव्यक्ति होती है। मनुष्य को सभ्य व पूर्ण बनाने के लिए शिक्षा जरूरी है। सभी प्रकार की शिक्षा का माध्यम भाषा ही है।

मानवीय मूल्यों का अहसास कराती भाषा-
विश्व के हितों को ध्यान में रखते हुए जो ¨चतन, मनन गहराई से किया जाता है, वह दार्शनिक ¨चतन कहलाता है। यहां बताना चाहूंगी कि गांधी जी स्वयं अंग्रेजी के प्रभावी ज्ञाता व वक्ता थे। गांधी के विचार शिक्षा के संदर्भ में स्पष्ट थे। उनके अनुसार, हजारों व्यक्तियों को अंग्रेजी सिखलाना उन्हें गुलाम बनाने जैसा है। उनका मानना था कि कि विदेशी भाषा के माध्यम से दी गई शिक्षा बच्चों पर अनावश्यक दबाव डालने, रटने और नकल करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करती है। मौलिकता का अभाव पैदा होता है। जबकि मातृभाषा संस्कार के साथ नैतिक व मानवीय मूल्यों की भी शिक्षा देती है।

Omprakash Sharma

Monday, 13 January 2020

ब्रजभाषा में पढ़ें मकरसंक्रांति व पोंगल त्यौहार के बारे में


या बार सूर्य कौ मकर राशि में गोचर हैनौ 15 जनवरी कूँ बतायौ जा रह्यौ है जाके मारें हिंदू पंचांग में या पर्व की तिथि 15 जनवरी दई गई है। उत्तर प्रदेश और बिहार के कछु क्षेत्रन में या त्योहार कूँ खिचड़ी (Khichdi ) के नाम ते जानौ जामतौ है। वैसैं जे त्यौहार हर वर्ष 14 जनवरी कूँ पड़तौ है । हिंदू त्योहारन की तारीख पंचांग देखकर ही निर्धारित करि जामतें । हिंदी और अंग्रेजी की दिनांकन में हमेशा अंतर रहमतौ है। या ही वजह ते हर साल आबे वारे त्योहारन कौ दिनांक हर बार अलग होमतौ है लेकिन तिथींन कौ क्षय है जानौ, तिथींन कौ घट-बढ़ जानौ, अधिक मास कौ पवित्र महीना आ जानौ परंतु मकर संक्रांति 14 जनवरी को ही आबै है। परन्तु पिछले कछु समय ते याकी दिनांकन में हु अंतर आबे लगौ है। याकी शुरुआत 2015 ते भयी हती और मकर संक्रांति के दिनांक कूँ लै कैं वर्ष 2030 तक जेही असमंजस बनौ रहबैगौ। मकर संक्रांति हिन्दू धर्म कौ प्रमुख पर्व है । ज्योतिष के अनुसार, मकर संक्रांति के दिन सूर्य धनु राशि ते मकर राशि में प्रवेश करतौ है ।सूर्य के एक राशि ते दूसरी राशि में प्रवेश करबे कूँ संक्रांति कहमतैं । मकर संक्राति के पर्व कूँ कहूँ-कहूँ उत्तरायणहु कह्यौ जामतौ है ।



मकर संक्राति के दिन गंगा स्नान, व्रत, कथा, दान और भगवान सूर्यदेव की उपासना करबे कौ विशेष महत्त्व है ।
मकर संक्रांति ते अग्नि तत्त्व की शुरुआत हैमतै और कर्क संक्रांति ते जल तत्त्व की । या दिन तिल कौ हर जगह काउ ना काउ रूप में प्रयोग हैमत ही है । तिल स्वास्थ्य के लैं हु बहौत गुणकारी है । मकर संक्रांति पै माघ मेले में प्रयागराज संगम पै भारी संख्‍या में साधु-संत व लोगन कौ नहान हौंतौ है । आज के दिना सूर्य के बीज मंत्र कौ जाप करैं, मंत्र ऐसैं होयगौ - "ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः" ।


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 पोंगल दक्षिण भारत कौ बड़ौ फसलन कौ त्योहार है। तमिलनाडु में याय 'ताई पोंगल' के नाम ते हु जानौ जामतौ है। जे हर वर्ष 14 जनवरी कूँ ही मनायौ जामतौ है। पोंगल पै अरवा चावल, सांभर, मूंग की दाल, तोरम, नारियल, अबयल जैसे पारंपरिक व्यजन बनाए जामतें। या पर्व कौ व्यंजन 'चाकारी पोंगल' है, जाय दूध में चावल, गुड़ और बांग्ला चना कूँ उबालकैं बनायौ जामतौ है।



 जे त्योहार चार दिन तक चलतौ है। या में 'भोगी पोंगल' 15 जनवरी कूँ, 'थाई पोंगल' 16 जनवरी कूँ, 'मट्टू पोंगल' 17 जनवरी कूँ और 'कान्नुम पोंगल'  18 जनवरी कूँ मनाया जाय करै है।