BRAJ KI BOLI:BrajBhasha History
BRAJ KI BOLI
बृजभाषा मूलत: बृज क्षेत्र की बोली है। (श्रीमद्भागवत के रचनाकाल में “व्रज” शब्द क्षेत्रवाची हो गया था। विक्रम की 13वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी तकभारत के मध्य देश की साहित्यिक भाषा रहने के कारण ब्रज की इस जनपदीय बोली ने अपने उत्थान एवं विकास के साथ आदरार्थ “भाषा” नाम प्राप्त किया और “ब्रजबोली” नाम से नहीं, अपितु “ब्रजभाषा” नाम से विख्यात हुई। अपने विशुद्ध रूप में यह आज भी आगरा, हिण्डौन सिटी,धौलपुर, मथुरा, मैनपुरी, एटा और अलीगढ़ जिलों में बोली जाती है। इसे हम “केंद्रीय बृजभाषा” के नाम से भी पुकार सकते हैं। बृजभाषा में ही प्रारम्भ में काव्य की रचना हुई। सभी भक्त कवियों ने अपनी रचनाएं इसी भाषा में लिखी हैं जिनमें प्रमुख हैं सूरदास, रहीम, रसखान, केशव,घनानंद, बिहारी, इत्यादि। हिन्दी फिल्मों के गीतों में भी बृज भाषा के शब्दों का प्रमुखता से प्रयोग किया गया है।
आधुनिक ब्रजभाषा 1 करोड़ 23 लाख जनता के द्वारा बोली जाती है और लगभग 38,000 वर्गमील के क्षेत्र में फैली हुई है। ब्रजभाषा का कुछ मिश्रित रुप जयपुर राज्य के पूर्वी भाग तथा बुलंदशहर, मैनपुरी, एटा, बरेली और बदायूं ज़िलों तक बोला जाता है। ग्रिर्यसन महोदय ने अपने भाषा सर्वे में पीलीभीत, शाहजहाँपुर, फर्रूखाबाद, हरदोई, इटावा तथा कानपुर की बोली को कन्नौजी नाम दिया है, किन्तु वास्तव में यहाँ की बोली मैनपुरी, एटा बरेली और बदायूं की बोली से भिन्न नहीं हैं। अधिक से अधिक हम इन सब ज़िलों की बोली को ‘पूर्वी ब्रज’ कह सकते हैं। सच तो यह है कि बुन्देलखंड की बुन्देली बोली भी ब्रजभाषा का ही रुपान्तरण है। बुन्देली ‘दक्षिणी ब्रज’ कहला सकती है। * भाषाविद् डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने लिखा है- अपने विशुद्ध रूप में ब्रजभाषा आज भी आगरा, धौलपुर, मथुरा और अलीगढ़ ज़िलों में बोली जाती है। इसे हम केंद्रीय ब्रजभाषा के नाम से भी पुकार सकते हैं। केंद्रीय ब्रजभाषा क्षेत्र के उत्तर पश्चिम की ओर बुलंदशहर ज़िले की उत्तरी पट्टी से इसमें खड़ी बोली की लटक आने लगती है। उत्तरी-पूर्वी ज़िलों अर्थात् बदायूँ और एटा ज़िलों में इस पर कन्नौजी का प्रभाव प्रारंभ हो जाता है। डा. धीरेंद्र वर्मा, कन्नौजी को ब्रजभाषा का ही एक रूप मानते हैं। दक्षिण की ओर ग्वालियर में पहुँचकर इसमें बुंदेली की झलक आने लगती है। पश्चिम की ओर गुड़गाँवा तथा भरतपुर का क्षेत्र राजस्थानी से प्रभावित है। भारतीय आर्य भाषाओं की परंपरा में विकसित होने वाली “ब्रजभाषा” शौरसेनी भाषा की कोख से जन्मी है। गोकुल के वल्लभ-सम्प्रदाय का केन्द्र बनने के बाद से ब्रजभाषा में कृष्ण साहित्य लिखा जाने लगा और इसी के प्रभाव से ब्रज की बोली साहित्यिक भाषा बन गई। भक्तिकाल के प्रसिद्ध महाकवि सूरदास से आधुनिक काल के श्री वियोगी हरि तक ब्रजभाषा में प्रबंध काव्यऔर मुक्तक काव्यों की रचना होती रही।
ब्रजभाषा का क्षेत्र विभाजन-
भाषा का क्षेत्रीय रूप बोली कहलाता है। अर्थात् देश के विभिन्न भागों में बोली जाने वाली भाषा बोली कहलाती है और किसी भी क्षेत्रीय बोली का लिखित रूप में स्थिर साहित्य वहाँ की भाषा कहलाता है।
ब्रजभाषा क्षेत्र की भाषागत विभिन्नता को दृष्टि में रखते हुए हम उसका विभाजन निम्नांकित रूप में कर सकते हैं:
- 1. आदर्श ब्रजभाषा – अलीगढ़, मथुरा तथा पश्चिमी आगरा की ब्रजभाषा को “आदर्श ब्रजभाषा” कहा जा सकता है।
- 2. बुंदेली ब्रजभाषा – ग्वालियर के उत्तर-पश्चिम में बोली जाने वाली भाषा को कहा जा सकता है।
- 3. राजस्थानी से प्रभावित ब्रजभाषा – यह भरतपुर और उसके दक्षिणी भाग में बोली जाती है।
- 4. सिकरवारी ब्रजभाषा – यह ग्वालियर के उत्तर पूर्व में जहाँ सिकरवार राजपूत हैं, पाई जाती है।
- 5. जादौबारी ब्रजभाषा – करौली और चंबल के मैदान में बोली जाने वाली भाषा को “जादौबारी ब्रजभाषा” नाम कहा जाता है। जादौ (यादव) राजपूतों की बस्तियाँ हैं।
- 6. कन्नौजी ब्रजभाषा – एटा, अनूपशहर, और अतरौली की भाषा कन्नौजी भाषा से प्रभावित है।
- 7. बुंदेली ब्रजभाषा – ग्वालियर के उत्तर-पश्चिम में बोली जाने वाली भाषा को कहा जा सकता है।
ग्वाल कवि,गुरु गोविन्दसिंह जैसे पंजाब क्षेत्र के कवियों ने पंजाबी प्रभाव दिया है। दादू, सुन्दरदास और रज्जब जैसे सन्तकवियों की भाषा में (जो प्रमुख रूप से ब्रजभाषा ही है) राजस्थानी का पुट गहरा है। बुन्देलखण्ड के कवियों में पद्माकर, ठाकुर बोधा और बख्शी हंसराज का प्रभाव उल्लेखनीय है।
प्रयोग के प्रमाण-
महानुभाव सम्प्रदाय (तेरहवीं शताब्दी के अन्त) के सन्त कवियों ने एक प्रकार की ब्रजभाषा का उपयोग किया। कालान्तर में साहित्यिक ब्रजभाषा का विस्तार पूरे भारतमें हुआ और अठारहवीं, उन्नीसवीं शताब्दी में दूर दक्षिण में तंजौर और केरल में ब्रजभाषा की कविता लिखी गई। सौराष्ट्र(कच्छ) में ब्रजभाषा काव्य की पाठशाला चलायी गई, जो स्वाधीनता की प्राप्ति के कुछ दिनों बाद तक चलती रही। उधर पूरब में यद्यपि साहित्यिक ब्रज में तो नहीं साहित्यिक ब्रज से लगी हुई स्थानीय भाषाओं में पद रचे जाते रहे। बंगाल और असम में इन भाषा को ‘ब्रजबुलि’ नाम
दिया गया। इस ‘ब्रजबुली’ का प्रचार कीर्तन पदों में और दूर मणिपुर तक हुआ।
इस देश के साहित्य के इतिहास में ब्रजभाषा ने जो अवदान दिया है, उसे यदि हम काट दें तो देश की रसवत्ता और संस्कारिता का बहुत बड़ा हिस्सा हमसे अलग हो जायेगा।
ब्रजभाषा के कवियों ने सामान्य गृहस्थ जीवन को ही केन्द्र में रखा है, चाहे वे कवि संत हो, दरबारी हो, राजा हो या फ़कीर हो। रहीम के निम्नलिखित शब्द-चित्रों में श्रमजीवी की सहधर्मिता अंकित है-
लइके सुघर खुरपिया पिय के साथ। छइबे एक छतरिया बरसत पाथ।।
ब्रजभाषा साहित्य का कोई अलग इतिहास नहीं लिखा गया है, इसका कारण यह है कि हिन्दी और ब्रजभाषा दो सत्ताएँ नहीं हैं। यदि दो हैं भी तो, एक-दूसरे की पूरक हैं। परन्तु जिस प्रकार की अल्प परिश्रम से विद्या प्राप्त करने की प्रवृत्ति ज़ोर पकड़ती जा रही है, जिस तरह का संकीर्ण उपयोगितावाद लोगों के मन में घर करता जा रहा है, उसमें एक प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है, कि हिन्दी साहित्य को यदि पढ़ना-पढ़ाना है तो, उसे श्रीधर पाठक या मैथिलीशरण गुप्त से शुरू करना चाहिए। यह कितना बड़ा आत्मघात है, उसे बतलाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि साहित्य या संस्कृति में इस प्रकार की विच्छिन्नता तभी आती है, जब कोई जाति अपने भाव-स्वभाव को भूलकर पूर्ण रूप से दास हो जाती है। हिन्दुस्तान में ऐसी स्थिति कभी नहीं आयी, आज आ सकती है, यदि इस प्रकार विच्छेद करने का प्रयत्न हो।
जब हम ब्रजभाषा साहित्य कहते हैं तो, उसमें गद्य का समावेश नहीं करते। इसका कारण यह नहीं है कि, ब्रजभाषा में गद्य और साहित्यिक गद्य है ही नहीं। वैष्णवों के वार्ता साहित्य में, भक्ति ग्रन्थों के टीका साहित्य में तथा रीतकालीन ग्रन्थों के टीका साहित्य में ब्रजभाषा गद्य का प्रयोग हुआ है|
ब्रजभाषी गेय पद रचना-
चण्डीदास, विद्यावति तथा गोविन्दस्वामी को छोड़कर गेय पद रचना पर ब्रजभाषा का अक्षुण्ण अधिकार है। तुलसीदास जी ने स्वयं भिन्न प्रयोजनों से भिन्न-भिन्न प्रकार की भाषा का प्रयोग किया।
सुन्दरदास के एक उदाहरण में–
तू ठगि कै धन और कौ ल्यावत, तेरेउ तौ घर औरइ फोरै।
आगि लगै सबही जरि जाइ सु तू, दमरी दमरी करि जोरै।
हाकिम कौ डर नाहिन सूझत, सुन्दर एकहि बार निचोरै।
तू षरचै नहिं आपुन षाइ सु तेरी हि चातुरि तोहि लै बोरे।।
तू ठगि कै धन और कौ ल्यावत, तेरेउ तौ घर औरइ फोरै।
आगि लगै सबही जरि जाइ सु तू, दमरी दमरी करि जोरै।
हाकिम कौ डर नाहिन सूझत, सुन्दर एकहि बार निचोरै।
तू षरचै नहिं आपुन षाइ सु तेरी हि चातुरि तोहि लै बोरे।।
सबसे अधिक श्रेय इस विषय में सूरदास को दिया जाना चाहिए। सूर ब्रजभाषा के पहले कवि हैं, जिन्होंने इसकी सृजनात्मक सम्भावनाओं की सबसे अधिक सार्थक खोज की और जिन्होंने ब्रजभाषा को गति और लोच देकर इसकी यान्त्रिकता तोड़ी।
सुन्दर व्याकरणीय प्रयोग-
आगे नन्दरानी के तनिक पय पीवे काज तीन लोक ठाकुर सो ठुनकत ठाड़ौ है…(पद्माकर)
अब रहियै न रहियै समयो बहती नदी पाँय पखार लै री।
राधिका के आनन की समता न पावै विधु टूकि-टूकि तोरै पुनि टूक-टूक जोरै है…(उत्प्रेक्षा)
उलाहनों की भाषा में बाँकपन सूरदास से ही मिलना प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु इस युग की कविता में वह बाँकपन कुछ और विकसित मिलता है। जैसे-
भोरहि नयौति गई ती तुम्हें वह गोकुल गाँव की ग्वारिन गोरी। आधिक राति लौं बेनी प्रबीन तुम्हें ढिंग राखि करी बरजोरी।
देखि हँसी हमें आवत लालन भाल में दीन्ही महावर घोरी। इते बड़े ब्रजमण्डल में न मिली कहुँ माँगेहु रंचक रोरी।।
देखि हँसी हमें आवत लालन भाल में दीन्ही महावर घोरी। इते बड़े ब्रजमण्डल में न मिली कहुँ माँगेहु रंचक रोरी।।
शृंगार रस प्रधान भारतेंदु जी ने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का सुंदर चित्रण किया है। वियोगावस्था का एक चित्र देखिए-
देख्यो एक बारहूं न नैन भरि तोहि याते जौन जौन लोक जैहें तही पछतायगी।
बिना प्रान प्यारे भए दरसे तिहारे हाय, देखि लीजो आंखें ये खुली ही रह जायगी।
बिना प्रान प्यारे भए दरसे तिहारे हाय, देखि लीजो आंखें ये खुली ही रह जायगी।
ब्रजभाषा के प्रति असजगता-
जो भक्त कवि कुशल नहीं थे, वे भाषा के प्रति सजग नहीं रहे, वे सम्प्रेषण के प्रति उदासीन रहे, उनके मन में यह भ्रम रहा कि भाव मुख्य है, भाषा नहीं। वे यह समझ नहीं सकते थे कि भाव और भाषा का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। इनके अचेत कवि-कर्म की बहुलता का प्रभाव भाषा पर पड़ा, उसमें कुछ जड़ता आने लगी।
सजन सरल घनस्याम अब, दीजै रस बरसाय।
जासों ब्रजभाषा - लता , हरी - भरी लहराय।।
जन्मी ब्रजभूमि में पली है तू मलाई पाय,
गोपन कौ माखन सरस सद् खायौ है।
तुलसी के वन में, सुछंद गेंद सूरज की,
खूब खुलि खेलिकें अनूप रूप पायौ है।
ऐहो रसखानि घन आनंद सुमन वारी,
दास मतिराम तोय भूषन सजायौ है।
धन्य ब्रजभाषा तोसी दूसरी न भाषा, तैनें
बानी के विधाता कू बोलिबौ सिखायौ है
(मथुरा यानी ब्रज का क्षेत्र हमेशा दूध, दही और मलाई से परिपूर्ण रहता है, वहा ंरहने वाले सदैव मलाई और माखन का सेवन करते रहते हैं और स्वयं कृष्ण को भी मलाई बेहद प्रिय थी। इस भाषा में रसखान और मतिराम जैसे कवियों ने अनेक रचनाएं की हैं और रामनारायम अग्रवाल कहते हैं कि ब्रजभाषा जैसी और कोई दूसरी भाषा नहीं है क्योंकि इस भाषा ने कृष्ण यानी विधाता को बोलना सिखाया है)
सुरपद बरन सुभाय विविध रसमय अति उत्तम,
सुद्ध संस्कृत सुखद आत्मजा अभिनव अनुपम।
दसकाल अनुसार भाव निज व्यक्त करन में,
मंजु मनोहर भाषा या सम कोउ न जग में।
बरनन को करि सकत भला तिह भाषा कोटी,
मचलि मचलि मांगी जामैं हरि माखन रोटी।
(उस भाषा का जग में कोई क्या सानी होगा जिस बोली में हरि के अवतार श्रीकृष्ण ने माखन रोटी मांगी होगी)
ब्रज भाषे हौं भूलि सकति कबहूं नहिं तोकौं
तेरी महिमा और मधुरिमा मोहत मोकौं
वह वृंदावन नंदगांव गोकुल बरसानौ
जहां स्वर्ग कौ सार अवनितल पै रससानौ
वे कालिंदी कूल कलित, कलरव वा जल कौं
झलक जाये स्याम वरन अजहूं स्यामल कौ
वे करील के कुंज चीर उरझावन हारे
रहे आप बलवीर स्वयं सुरझावन बारे
वह केकी, पिक, कूह-कूह चातक की रटना
सांझ सवेरे नित्य नई पनघट की घटना
धेनु-धूरि में मोर-मुकुट बारी वह झांकी
घूंघट-पट की ओट, चोट की चितबन बांकी
वह कदंब की छांह, मेह झर ब्यौरी ब्यौरी
दिये जहां गलबांह सामरी गोरी-गोरी
वह बसंत की ब्यार, सरद की सुंदर पूनौ
नटनागर कौ रास रहस जहं दिन दिन दूनौ
आंस गांस सौं भरी सांस सौं फूंकनबारी
हरे बांस की पोर हाय हरि की वह प्यारी
वह गोपिन कौ प्र्रेम और निरवाहन बारौ
ऊधौ कौ वह ज्ञान गरव गढ़ ढाहन हारौ
(बहुत ही सुंदर वर्णन किया है मैथिली जी ने ब्रज भाषा का, उन्हें यह भाषा इतनी प्रिय है कि वह इसे कभी भूल नहीं सकते साथ ही वह उस ब्रज क्षेत्र का भी वर्णन कर रहे हैं जहां यह भाषा बोली जाती है कि यह वो स्थान है जहां गोपियों ने उद्धव के ज्ञान को परास्त कर दिया था)
अपनाय लई बनिकें कवि कोविद
काऊ नें गाइ बढ़ाई पिपासा
गुजरात बिहार बंगाल पंजाब,
बुदेलिन नें यै बुलाई है पासा
सब राजन के ढिंग पाय कें मान
कियौ सर्वत्रहि यानें सुबासा
जननी न बनी पै जु काऊ प्रदेश की,
श्प्रीतमाश् के घर की ब्रजभासा
ब्रज की भाषा लगै पियारी।
अति ही सुंदर लागत मोकू यहां सारे की गारी
या भाषा कौं बोल गये हैं जबते कुंज बिहारी
तब ही ते अति सरस भई है बोलन में सुखकारी
ओरे अरे अरी कहि बोलैं, ब्रजवासी नर नारी
Mathura ki bhasha-
ब्रजभाषा कौ मानकीकरण –
ब्रजभाषा कौ मानकीकरण बनौ भयौ ऍह लेकिन बू लिखित रूप में, ‘गद्य के रूप में’ नाँय वैसें पद्य ते तौ अटौ परयौ ऍह |आज के समय ज्यादातर बे ई भाषा आयगें हैं जिनकौ गद्य समृद्ध ऍह लेकिन पुराने दिनांन में पद्य बारी भाषा आयगें हतीं |”वाक्यसंरचना” के हिसाब ते हिंदी भाषा ब्रजभाषा की बिलकुल नक़ल ऍह |
तुम कितेकउ बार तुलना कर लीजों याइ की नक़ल मिलैगी |अब मैं, या ब्रज भाषा के लिखे गए कछु वाक्यन नै हिंदी में ज्यौं की त्यौं रख कैं बता रऊँ|हिंदी में – ब्रज भाषा का मानकीकरण बना हुआ है लेकिन वह लिखित रूप में गद्य के रूप में नहीँ है वैसे पद्य से भरा पड़ा है |आज के समय ज्यादातर वो ही भाषा आगे हैं जिनका गद्य समृद्ध है लेकिन पुराने समय में “पद्य वाली भाषा” आगे थीं |
“वाक्यसंरचना” के हिसाब से हिंदी भाषा “ब्रज भाषा” की बिलकुल नक़ल है |तुम कितनी भी बार तुलना कर लेना, इसी की नक़ल मिलेगी अब मैं, इस ब्रज भाषा के लिखे गए वाक्यों को हिंदी में ज्यौं की त्यौं बता रहा हूँ |
ब्रजभाषा के संदर्भ में महापुरूषन की कही गयी बात/ब्रजभाषा की महिमा-
आदर के भाव से कहें तो वस्तुत: बृज भाषा का प्रसाद है हिन्दी - साहित्य
ब्रज का काव्य और वैष्णव वार्ताऐं वह अविभावक हैं जिन्होंने संस्कृत के धरातल पर भारत को प्रतिनिधी भाषा- हिंदी प्रदान की है ।
हिंदी साहित्य के इतिहासकार आचार्य रामचंन्द्र शुक्ल ( सन् १८४४ - १९४१ ) ने हिंन्दी भाषा का शोध पूर्ण इतिहास लिखा है और स्पष्टत: कहा है कि ब्रज भाषा हिन्दी साहित्य का प्राण है ।
ब्रजभाषा वोई भाषा है, जामें मांगी माखन रोटी
ब्रजभाषा के आगे लागे, हर कोई भाषा खोटी।
ब्रजभाषा ने नाईं देय बस भाषा के अभिमानी
ब्रज भाषा ने दये जगत कूं तुलसी सूर सो ज्ञानी।।
सजन सरल घनस्याम अब, दीजै रस बरसाय।
जासों ब्रजभाषा - लता , हरी - भरी लहराय।।
जन्मी ब्रजभूमि में पली है तू मलाई पाय,
गोपन कौ माखन सरस सद् खायौ है।
तुलसी के वन में, सुछंद गेंद सूरज की,
खूब खुलि खेलिकें अनूप रूप पायौ है।
ऐहो रसखानि घन आनंद सुमन वारी,
दास मतिराम तोय भूषन सजायौ है।
धन्य ब्रजभाषा तोसी दूसरी न भाषा, तैनें
बानी के विधाता कू बोलिबौ सिखायौ है
(मथुरा यानी ब्रज का क्षेत्र हमेशा दूध, दही और मलाई से परिपूर्ण रहता है, वहा ंरहने वाले सदैव मलाई और माखन का सेवन करते रहते हैं और स्वयं कृष्ण को भी मलाई बेहद प्रिय थी। इस भाषा में रसखान और मतिराम जैसे कवियों ने अनेक रचनाएं की हैं और रामनारायम अग्रवाल कहते हैं कि ब्रजभाषा जैसी और कोई दूसरी भाषा नहीं है क्योंकि इस भाषा ने कृष्ण यानी विधाता को बोलना सिखाया है)
सुरपद बरन सुभाय विविध रसमय अति उत्तम,
सुद्ध संस्कृत सुखद आत्मजा अभिनव अनुपम।
दसकाल अनुसार भाव निज व्यक्त करन में,
मंजु मनोहर भाषा या सम कोउ न जग में।
बरनन को करि सकत भला तिह भाषा कोटी,
मचलि मचलि मांगी जामैं हरि माखन रोटी।
(उस भाषा का जग में कोई क्या सानी होगा जिस बोली में हरि के अवतार श्रीकृष्ण ने माखन रोटी मांगी होगी)
ब्रज भाषे हौं भूलि सकति कबहूं नहिं तोकौं
तेरी महिमा और मधुरिमा मोहत मोकौं
वह वृंदावन नंदगांव गोकुल बरसानौ
जहां स्वर्ग कौ सार अवनितल पै रससानौ
वे कालिंदी कूल कलित, कलरव वा जल कौं
झलक जाये स्याम वरन अजहूं स्यामल कौ
वे करील के कुंज चीर उरझावन हारे
रहे आप बलवीर स्वयं सुरझावन बारे
वह केकी, पिक, कूह-कूह चातक की रटना
सांझ सवेरे नित्य नई पनघट की घटना
धेनु-धूरि में मोर-मुकुट बारी वह झांकी
घूंघट-पट की ओट, चोट की चितबन बांकी
वह कदंब की छांह, मेह झर ब्यौरी ब्यौरी
दिये जहां गलबांह सामरी गोरी-गोरी
वह बसंत की ब्यार, सरद की सुंदर पूनौ
नटनागर कौ रास रहस जहं दिन दिन दूनौ
आंस गांस सौं भरी सांस सौं फूंकनबारी
हरे बांस की पोर हाय हरि की वह प्यारी
वह गोपिन कौ प्र्रेम और निरवाहन बारौ
ऊधौ कौ वह ज्ञान गरव गढ़ ढाहन हारौ
(बहुत ही सुंदर वर्णन किया है मैथिली जी ने ब्रज भाषा का, उन्हें यह भाषा इतनी प्रिय है कि वह इसे कभी भूल नहीं सकते साथ ही वह उस ब्रज क्षेत्र का भी वर्णन कर रहे हैं जहां यह भाषा बोली जाती है कि यह वो स्थान है जहां गोपियों ने उद्धव के ज्ञान को परास्त कर दिया था)
अपनाय लई बनिकें कवि कोविद
काऊ नें गाइ बढ़ाई पिपासा
गुजरात बिहार बंगाल पंजाब,
बुदेलिन नें यै बुलाई है पासा
सब राजन के ढिंग पाय कें मान
कियौ सर्वत्रहि यानें सुबासा
जननी न बनी पै जु काऊ प्रदेश की,
श्प्रीतमाश् के घर की ब्रजभासा
ब्रज की भाषा लगै पियारी।
अति ही सुंदर लागत मोकू यहां सारे की गारी
या भाषा कौं बोल गये हैं जबते कुंज बिहारी
तब ही ते अति सरस भई है बोलन में सुखकारी