ब्रज शब्द का अर्थ
सप्तपुरियों में मथुरा का स्थान
ब्रजप्रदेश की सीमाएं (ब्रजभूमि क्षेत्र/ब्रज प्रदेश/ब्रजप्रांत/ब्रजांचल)
ब्रज के जिले
ब्रजरज
ब्रजवासी/ब्रजजन
ब्रजकला सांझी
ब्रज की मूर्तिकला
ब्रज के ताल, पोखर , बावड़ी, कुंड, कूप
ब्रज की परिक्रमाऐं
ब्रज के लोकनृत्य / महारास
ब्रज के मंदिर
ब्रज के यमुना घाट
ब्रज के पहाड़
ब्रज की नदियां
ब्रज के वन, उपवन
ब्रजभूमि का सबसे बड़ा वन ' ब्रह्मर्षि सौभरि वन'
ब्रज के पशु- पक्षी
ब्रज के वृक्ष
ब्रज की जलवायु
ब्रज की फसल
ब्रज के भोजन व मिठाइयां
ब्रजक्षेत्र में जिलों के अनुसार प्रसिद्ध वस्तु
ब्रज मेट्रो रूट व ब्रजभाषा में घोषणा
ब्रजभाषा का इतिहास
ब्रजभाषा कोट्स
ब्रजभाषा ग्रीटिंग्स
ब्रजभाषा शब्दकोश
ब्रजभाषा सीखिए
ब्रजभाषा लोकगीत
ब्रज की संगीतकला/वाद्ययंत्र
ब्रजभाषा चुटकुले (ठट्ठे - हांसी)
ब्रज के अभिनेता/अभिनेत्री
ब्रज के कवि और लेखक
ब्रजभाषा के अष्टछाप कवि (साहित्य)
ब्रज संग्रहालय
ब्रज के विश्वविद्यालय
ब्रज के प्रमुख नगर
ब्रज के प्रसिद्द गांव
ब्रज में परिवहन के साधन
ब्रजभूमि के स्वतंत्रता सेनानी
ब्रज के राजा
ब्रजक्षेत्र के संप्रदाय
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ब्रजभाषा ब्लॉग- १
✍️मथुरा का सप्तपुरियों में स्थान, ब्रज शब्द का अर्थ, ब्रजक्षेत्र के जिले।
ब्रजक्षेत्र/ ब्रजांचल/ ब्रजप्रांत/ ब्रजप्रदेश।मथुरा नगर की गणना सप्तपुरियों में की जाती है। यह उत्तर प्रदेश का एक पवित्र शहर है । मथुरा भगवान श्री कृष्ण की जन्मस्थली है । सप्त पुरी, भारत के सात पवित्र शहरों का समूह है । इन शहरों की यात्रा करने से मोक्ष (जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति) का आशीर्वाद मिलता है। अयोध्या, मथुरा, द्वारका, उज्जैन, वाराणसी, हरिद्वार, और कांचीपुरम ।
🔸ब्रज शब्द का अर्थ है - मवेशियों के लिए चारागाह, आश्रय या रिसॉर्ट । यह संस्कृत शब्द 'व्रज' से लिया गया है । ब्रज शब्द का इस्तेमाल कई अर्थों में किया जाता है।
ब्रज शब्द के अन्य अर्थ:-
* ब्रज शब्द का इस्तेमाल मवेशियों के लिए चारागाह, आश्रय या रिसॉर्ट के अर्थ में किया जाता है.
* ब्रज शब्द का इस्तेमाल गोशाला, गो-स्थान, गोचर भूमि के अर्थ में भी किया जाता है ।
* ब्रज शब्द का इस्तेमाल गतिशीलता के अर्थ में भी किया जाता है ।
* ब्रज शब्द का इस्तेमाल भारत के उत्तर प्रदेश में मथुरा-वृंदावन के आस-पास के क्षेत्र के लिए किया जाता है ।
* ब्रज शब्द का प्रयोग कृष्ण की भूमि के लिए किया जाता है ।
* ब्रज शब्द का इस्तेमाल यमुना नदी के तट पर स्थित क्षेत्र के लिए किया जाता है ।
* ब्रज शब्द का इस्तेमाल अर्ध-खानाबदोश चरवाहे के शिविर की संस्कृति से जुड़े क्षेत्र के लिए किया जाता है।
जिले का नाम उत्पाद का नाम
आगरा चमड़ा उत्पाद
अलीगढ़ ताले एवं हार्डवेयर
बदायू ज़री जरदोज़ी उत्पाद
बरेली बर्फी, ज़री-ज़रदोज़ी
बुलंदशहर सिरेमिक उत्पाद
एटा घुंघरू, घंटी एवं पीतल उत्पाद
फरुखाबाद वस्त्र छपाई
फ़िरोज़ाबाद चूड़ी, कांच के उत्पाद
गौतमबुद्ध नगर रेडीमेड गार्मेंट
संभल हस्तशिल्प (हॉर्न-बोन)
हाथरस हैंडलूम
कासगंज चमड़ा उत्पाद
मैनपुरी कालीन
मथुरा पेड़ा, धातु शिल्प
पीलीभीत। वस्त्र उत्पाद
शाहजहांपुर ज़री-ज़रदोज़ी
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मुरैना- तिल, गुड़ से बनी गजक
भिंड - परा की गुजिया
ग्वालियर - किला
श्योपुर - कूनो नेशनल पार्क
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डीग - बेर , लाखा तोप
भरतपुर - घना पक्षी विहार/लोहागढ़ किला
धौलपुर- लाल बलुआ पत्थर
करौली - कैला देवी मंदिर
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फरीदाबाद - तिलप्रस्थ गांव, कढ़ी चावल
पलवल - कपास
नूह - अरावली पर्वत श्रेणी
ब्रजप्रदेश की राजधानी- मथुरा ( ब्रज ८४ कोस)
*BrajPradesh Geographical Distribution:-* मंडल/संभाग- 6 ( लगभग 25 जिले), वर्तमान में ४ राज्यों में फैला हुआ है।
🔹( हरियाणा)
A- फरीदाबाद मंडल :- फरीदाबाद, पलवल, नूह (मेवात)
🔹( मध्यप्रदेश)
B- चंबल संभाग :- श्योपुर, भिंड, मुरैना
C- ग्वालियर संभाग :- केवल ग्वालियर जिला
🔹( राजस्थान)
D- भरतपुर संभाग :- भरतपुर, डीग, धौलपुर, सवाई माधोपुर, करौली
🔹( उत्तरप्रदेश )
E- बरेली मण्डल:- बरेली, बदायूं, पीलीभीत, शाहजहांपुर
F- आगरा मण्डल:- आगरा, फिरोजाबाद, मैनपुरी, मथुरा
G- अलीगढ़ मंडल:- कासगंज, हाथरस, एटा, अलीगढ
H- मेरठ मण्डल:- गौतमबुद्धनगर, बुलंदशहर
I- मुरादाबाद मण्डल :- संभल
( थोड़ा सा मेरठ मण्डल (गौतमबुद्ध नगर और बुलंदशहर का आधा क्षेत्र) और मुरादाबाद मण्डल का हिस्सा भी आता है (संभल जिला का कुछ हिस्सा) 15 जिले लगभग।
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ब्रजभाषा ब्लॉग- २
ब्रजरज, सांझीकला, ब्रज की मूर्तिकला।
वैदिक संहिताओं और रामायण, महाभारत जैसे संस्कृत के प्राचीन धर्मग्रंथों में ब्रज शब्द का इस्तेमाल गोशाला, गो-स्थान, गोचर भूमि के अर्थ में किया गया है ।
ऋग्वेद में ब्रज शब्द का इस्तेमाल गोशाला या गायों के खिरक के रूप में किया गया है । श्री कृष्ण के जन्म स्थान मथुरा और उनकी लीलाओं से जुड़े मथुरा के आस-पास के इलाके को ब्रज या ब्रजमंडल कहा जाता है। ब्रजरज ही तो है राधा- कृष्ण की चरणरज। उत्तर प्रदेश ब्रज तीर्थ विकास परिषद द्वारा परंपरागत रूप से आयोजित ब्रजरज उत्सव की शुरुआत होती है।
राधा कृष्ण की लीला स्थली बृजभूमि ललित कलाओं में सदा समृद्धशाली रही है तथा पूरे देश ही नही बल्कि विश्व मे आकर्षण का केन्द्र रही है। ऊधौ मोय ब्रज बिसरत नाही‘ (उद्धव मुझसे ब्रज भुलाया नही जाता) ये शब्द है ब्रज छोडकर द्वारिका पहुंच कर द्वारिकाधीश बनने वाले श्री कृष्ण जी के । ब्रज की सभी बीथियों मे राधा- कृष्ण का पावन प्रेम बिखरा हुआ है। यहां की हर गतिविधि दिव्य है।
मेरे ब्रज की माटी चंदन है,
गुणवान सभी कहते है,
ब्रज के राजा यशोदानन्दन,
गिरधारी जहाँ रहते है,
मेरे ब्रज की माटी चंदन है...
ब्रजवासी या बृजवासी ब्रज क्षेत्र की नागरिकता है। ब्रजवासी का अर्थ है जो ब्रज में वास करता है अर्थात जो ब्रज में रहता है।
1- जिसका जन्म ब्रज में हुआ हो चाहे वो जिंदगीभर कहीं भी रहे ।
2- जिसका जन्म कहीं भी हुआ हो लेकिन वो जिंदगीभर ब्रज में रहे ।
3- जिसका मन ब्रज में लगा रहता है, ब्रज में होने वाले त्यौहारों को मनाता है वो भी ब्रजवासी जैसा महसूस करता है।
4- जो व्यक्ति ब्रज कभी न आया हो परन्तु उसकी आने की बहुत इच्छा रहती हो।
हम कब होहिंगे ब्रजवासी।
ठाकुर नंदकिशोर हमारे, ठकुराइनि राधा सी।।
कब मिलि हैं वे सखी सहेली, हरिवंशी हरिदासी।
वंशीवट की शीतल छहियाँ, सुभग नदी जमुना सी।।
जाकी वैभव करत लालसा, कर-मीत कमलासी।
इतनी आस व्यास की पुजवहु वृन्दाविपिन विलासी ।
- श्री हरिराम व्यास (विशाखा अवतार) - व्यास वाणी, पूर्वार्ध (104)
🛕 मूर्ति कला - मथुरा में लगभग तीसरी शती ई०पू० से बारहवीं शती ई० तक अर्थात डेढ़ हजार वर्षों तक शिल्पियों ने मथुरा कला की साधना की जिसके कारण भारतीय मूर्ति शिल्प के इतिहास में मथुरा का स्थान महत्त्वपूर्ण है। यहाँ की स्थापत्य कला में बेलबूटेदार जालियाँ, तोरण और द्वार, स्तंभ ( खंभे ) देखने को मिलते हैं। मूर्तियों में पुष्पों के सुंदर श्रृंगार देखने को मिलते हैं तथा उत्सवों तक में फूलडोल आदि के उत्सव मनाए जाते हैं।
कुषाण काल से मथुरा विद्यालय कला क्षेत्र के उच्चतम शिखर पर था। सलेटी रंग की मातृदेवियों की मिट्टी की प्राचीन मूर्तियों के लिए मथुरा की पुरातात्विक प्रसिद्ध है। लगभग तीसरी शती के अन्त तक यक्ष और यक्षियों की प्रस्तर मूर्तियाँ उपलब्ध होने लगती हैं। मथुरा में लाल रंग के पत्थरों से बुद्ध और बोद्धिसत्व की सुन्दर मूर्तियाँ बनायी गयीं। महावीर की मूर्तियाँ भी बनीं। मथुरा कला में अनेक बेदिकास्तम्भ भी बनाये गये। यक्ष यक्षिणियों और धन के देवता कुबेर की मूर्तियाँ भी मथुरा से मिली हैं। इसका उदाहरण मथुरा से कनिष्क की बिना सिर की एक खड़ी प्रतिमा है। मथुरा शैली की सबसे सुन्दर मूर्तियाँ पक्षियों की हैं जो एक स्तूप की वेष्टणी पर खुदी खुई थी। इन मूर्तियों की कामुकतापूर्ण भावभंगिमा सिन्धु में उपलब्ध नर्तकी की प्रतिमा से बहुत कुछ मिलती जुलती है।
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साँझी कला ब्रज की प्रसिद्ध ललित कला है। यह बेहद बारीकी से चित्रण करने की कला है। सांझी ब्रज की ठेठ प्राचीन कला है। भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं से जुड़ी यह कला पूरी तरह से विलुप्त हो रही थी। करीब तीन दशक से मंदिरों तक सीमित रह गई इस कला को जीवंत करने के लिए द ब्रज फाउंडेशन ने करीब दस साल पहले प्राचीन ब्रह्मकुंड पर सांझी मेला का आयोजन किया।
श्राद्ध पक्ष में जब कोई उत्सव नहीं होते, तब ब्रज में सांझी उत्सव मनाया जाता है। शहरी इलाकों में रंग व फूल, जल की सांझी बनाई जाती है। ग्रामीण अंचलों में गोबर से सांझी बनाकर महोत्सव मनाया जाता है। ब्रज के मंदिरों, कुंज और आश्रमों में मिट्टी के ऊंचे अठपहलू धरातल पर रखकर छोटी-छोटी पोटलियों में सूखे रंग भर कर इस कला का चित्रण किया जाता है।
श्राद्धपक्ष में ठा. राधावल्लभ मंदिर, राधारमण मंदिर में नित नए तरीके की सांझी बनाई जाती है। पुराणों में उल्लेख है कि द्वापर में शाम के समय जब भगवान श्रीकृष्ण गोचारण करके आते थे, तो ब्रजगोपियां उनके स्वागत के लिए फूलों की चित्रकला (सांझी) सजाकर स्वागत करती थीं। तभी से ब्रज में सांझी कला की शुरुआत पड़ी। राजस्थान में सांझी एक मातृ देवी की पूजा का त्योहार है । सांझी को देवी मां का रूप माना जाता है । सांझी को संध्या देवी भी कहा जाता है । सांझी की पूजा पितृ पक्ष और शारदीय नवरात्र में की जाती है । सांझी को रिझाने के लिए मिट्टी से प्रतिमाएं बनाई जाती हैं ।
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ब्लॉग संख्या - ३
ब्रज की प्रसिद्ध परिक्रमायें-
A- 84 कोस परिक्रमा-
जो ब्रज 84 कोस की, परिकम्मा एक दैंतौ है ।
लख चौरासी योनिन के, संकट हरि हर लैंतौ है ॥
ब्रज की परिधि यानी चौरासी कोस में करीब 35 पड़ाव है। मथुरा से चलकर यात्रा सबसे पहले भक्त ध्रुव की तपोस्थली ध्रुवघाट स्थित मंदिर से शुरू होकर मधुवन पहुंचती है। यहा से तालवन, कुमुदवन, शातनु कुण्ड, सतोहा, बहुलावन, राधा-कृष्ण कुण्ड, गोवर्धन, काम्यक वन, संच्दर सरोवर, जतीपुरा, डीग का लक्ष्मण मंदिर, साक्षी गोपाल मंदिर, जल महल, कमोद वन, चरन पहाड़ी कुण्ड, काम्यवन, बरसाना, नंदगाव, जावट, कोकिलावन, कोसी, शेरगढ, चीर घाट, नौहझील, श्री भद्रवन, भाडीरवन, बेलवन, राया वन, गोपाल कुण्ड, कबीर कुण्ड, भोयी कुण्ड, ग्राम पडरारी के वनखंडी में शिव मंदिर, दाऊजी, महावन, ब्रह्माड घाट, चिंताहरण महादेव, गोकुल, लोहवन से होकर वृंदावन मार्ग में अनेक पौराणिक स्थलों के दर्शन चौरासीकोस यात्रा में होते हैं।
B- गिर्राज जी की परिक्रमा-
कछु माखन कौ बल बढ़ौ, कछु गोपन करी सहाय ।
श्री राधे जू की कृपा से गिरिवर लियौ उठाय ।।
श्री गोवर्धन मथुरा से 20 किमी० की दूरी पै स्थित है। पुराणन के अनुसार श्री गिरिराज जी कौ पुलस्त्य ऋषि द्रौणाचल पर्वत ते ब्रज में लाये हते। दूसरी मान्यता जे हु है कै त्रेता युग में दक्षिण में जब राम सेतुबंध कौ कार्य चल रहा हतो तौ हनुमान जी या पर्वत कूँ उत्तराखंड ते ला रहे हते। लेकिन सेतुबन्ध कौ कार्य पूर्ण हैबे की देववाणी कूँ सुनकैं हनुमान जीन नै या पर्वत कूँ ब्रज में स्थापित कर दियौ। गोवर्धन पर्वत बहुत द्रवित भए और इन्नै हनुमान जीन ते कही कै मैं श्री राम जी की सेवा और विनके चरण स्पर्श ते वंचित रह गयौ। जे वृतांत हनुमानजीन नै श्री राम जीन कूँ सुनायौ तौ राम जी बोले द्वापर युग में मैं या पर्वत कूँ धारण करंगो एवं याय अपनौ स्वरूप प्रदान करंगो।
भगवान श्री कृष्ण बलराम जीन के संग वृन्दावन में रहकैं अनेक प्रकार की लीला कर रहे हते। विन्नै एक दिन देखौ कै वहाँ के सब गोप इन्द्र-यज्ञ करने की तैयारी कर रहे हैं। भगवान श्री कृष्ण सबके अन्तर्यामी और सर्वज्ञ हैं विनते कोई बात छिपी नाँय हती। फ़िर हु विनयावनत है कैं विन्नै नन्दबाबा ते पूँछी- बाबा आप सब जे काह कर रहे हो? तौ नन्दबाबा और सब के सब ब्रजवासी बोले - "लाला, हम इन्द्रदेव की पूजा करवे की तैयारी कर रहे हैं। वो ही हमें अन्न, फ़ल आदि दैमतौ।" या पै कन्हैया नै सब ब्रजवासीन ते कही , अन्न, फ़ल और हमारी गैयान कूँ भोजन तौ हमें जे गोवर्धन पर्वत दैमतौ है। तुम सब ऐसे इन्द्र की पूजा काहे कूँ करतौ। मैं तुम सबन ते गोवर्धन महाराज की पूजा करवांगो जो तुम्हारे सब भोजन, पकवान आदिन कूँ पावैगो और सबन कू आशीर्वाद हु दैवैगौ। या बात पै सब ब्रजवासी और नंदबाबा कहमन लगे - लाला! हम तौ पुराने समय ते ही इन्द्र कूँ पूजते आ रहे हैं और सब सुखी हैं, तू काहे कूँ ऐसे देवता की पूजा करावै जो इन्द्र हम ते रूठ जाय और हमारे ऊपर कछु विपदा खड़ी कर देय। तौ लाला नै कही - ’आप सब व्यर्थ की चिन्ता कूँ छोड़ कैं मेरे गोवर्धन की पूजा करौ। तौ सबन नै गोवर्धन महाराज की पूजा की और छप्पन भोग, छत्तीस व्यंजन आदि सामग्री कौ भोग लगायौ। भगवान श्री कृष्ण जी गोपन कूँ विश्वास दिलावे कै लैं गिरिराज पर्वत के ऊपर दूसरे विशाल रूप में प्रकट है गये और विनकी सब सामग्री खावे लग गए। जे देख सब ब्रजवासी बहुत प्रसन्न भये। जब
अभिमानी देवराज इन्द्र कूँ पतौ लगौ कै समस्त ब्रजवासी मेरी पूजा कूँ बंद कर कैं काऊ और की पूजा कर रहे हैं, तौ वे सब पे बहौत ही क्रोधित भए। इन्द्र नै तिलमिला कैं प्रलय करबे वारे मेघन कूँ ब्रज पै मूसलाधार पानी बरसाने की आज्ञा दई। इन्द्र की आज्ञा पाय कैं सब मेघ सम्पूर्ण ब्रज मण्डल पै प्रचण्ड गड़गड़ाहट, मूसलाधार बारिश, एवं भयंकर आँधी-तूफ़ान ते सारे ब्रज कौ विनाश करबे लगे। जे देख कैं सब ब्रजवासी दुखी हैकैं श्री कृष्ण जी ते बोले - "लाला तेरे कहवे पै हमने इन्द्र की पूजा नाँय करी, जाके मारें बू नाराज है गयौ है और हमें भारी कष्ट पहुँचा रह्यौ है अब तू ही कछु उपाय कर । श्री कृष्ण जी नै सम्पूर्ण ब्रज मण्डल की रक्षा हेतु गोवर्धन पर्वत कूँ खेल-खेल में उठा लियौ एवं अपनी बायें हाथ की कनिका उंगली पै धारण कर लियौ और समस्त ब्रजवासियों, गैया वाके नीचे एकत्रित कर लयी। श्री कृष्ण जी नै तुरन्त ही अपने सुदर्शन चक्र ते सम्पूर्ण जल कूँ सोखबे के लैं आदेश करौ। श्री कृष्ण जी ने सात दिन तक गिरिराज पर्वत कूँ उठाये रखौ और सब ब्रजवासी आनन्दपूर्वक वाकी छ्त्रछाया में सुरक्षित रहे। या ते आश्चार्यचकित इन्द्र कूँ भगवान की ऐश्वर्यता कौ ज्ञान भयौ एवं वो समझ गये कै जे तौ साक्षात परम परमेश्वर श्री कृष्ण जी हैं। इन्द्र ने भगवान ते क्षमा-याचना की एवं सब देवतान के संग स्तुति की।
श्रीवृन्दावन के मुकुट स्वरूप श्री गोवर्धन पर्वत श्री कृष्ण के ही स्वरूप हैं। श्री कृष्ण सखाओं सहित गोचारण हेतु नित्य यहाँ आमतें तथा विभिन्न प्रकार की लीलान कूँ करतें। प्राचीन समय ते ही श्री गोवर्धन की परिक्रमा कौ पौराणिक महत्व है। प्रत्येक माह के शुक्लपक्ष की एकादशी ते पूर्णिमा तक कैउ लाख भक्त यहाँ की सप्तकोसी परिक्रमा पैदल एवं कुछ भक्त दंडौती (लेटकैं) लगामतें । प्रति वर्ष गुरु पूर्णिमा (मुड़िया पूनौ) पर यहाँ की परिक्रमा लगाबे कौ विशेष महत्व है । श्री गिरिराज तलहटी समस्त गौड़ीय सम्प्रदाय, अष्टछाप कवि एवं अनेक वैष्णव रसिक संतन की साधाना स्थली रही है।
C- दाऊजी की परिक्रमा-
D- शनिदेव की परिक्रमा-
E- मथुरा वृन्दावन की परिक्रमा-
F- पिसाये गाम की परिक्रमा-
इस रमणीक स्थल को 'ब्रजभक्ति विलास' में 'पिपासा बन' कहा गया है। इसके प्राकृतिक सौंदर्य की प्रशंसा करते हुए ग्राउज ने लिखा है - यह मथुरा जिले का सबसे सुन्दर स्थल है, जो काफी विस्तृत भी है। इसमें प्राकृतिक चौकों की कई पंक्तियाँ हैं, जिनके चारों और कदंब के वृक्षों की कतारें हैं। इनके साथ कहीं-कहीं पर छोटे वृक्ष पापड़ी, पसेंदू, ढ़ाक और सहोड़ के भी है। ये चौक ऐसे नियमित रूप में वन गये हैं, कि इन्हें प्राकृतिक कहना कठिन है।
G-अपने- अपने गॉंवों की परिक्रमा-
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🔸ब्रज के मंदिर/तीर्थनगर-
आप पहले दिन में वृंदावन के मंदिर, दूसरे दिन मथुरा के मंदिर तीसरे दिन गोकुल, महावन, दाऊजी तीनों जगहों के मंदिर देख सकते हैं।
चौथे दिन गोवर्धन परिक्रमा, पांचवे दिन बरसाना, नंदगांव, कामां, शनिदेव चारों जगह देख सकते हैं।
१- मथुरा के प्रमुख आकर्षण:-
कृष्ण जन्मभूमि, आदिवराह मन्दिर, कंकाली टीला, कालिन्दीश्वर महादेव, गर्तेश्वर महादेव , गोकर्णेश्वर महादेव, गोपी नाथ जी मन्दिर, गोवर्धननाथ जी, गोविन्द देव मंदिर, गौड़ीय मठ श्री केशव जी , चामुण्डा देवी, जयगुरुदेव मन्दिर, दसभुजी गणेश जी, दीर्घ विष्णु मन्दिर, द्वारिकाधीश मन्दिर, पद्मनाभजी का मन्दिर, पीपलेश्वर महादेव, बिरला मंदिर, बिहारी जी मन्दिर, भूतेश्वर महादेव, मदन मोहन मंदिर, महाविद्या मन्दिर ।
२- वृन्दावन दर्शनीय स्थल:- गोविन्द देव जी का मंदिर, अष्टसखी कुंज, इस्कॉन मन्दिर · गोदा बिहारी जी, गोपी नाथ जी, गोपेश्वर महादेव, गोविन्द देव जी, गौरे लाल जी, जयपुर मन्दिर , जुगलकिशोर जी , बनखण्डी महादेव, बांके बिहारी जी, ब्रह्मचारी ठाकुर बाड़ी, मदन मोहन जी, महारानी स्वर्णमयी मन्दिर, मीराबाई मन्दिर, मोहन बिहारी जी, रंग नाथ जी, रसिक बिहारी जी · राधादामोदर जी · राधारमण जी, राधावल्लभ जी, रूप सनातन गौड़ीय मठ, वर्द्धमान महाराज कुंज, शाहजापुर का मन्दिर, शाह बिहारी जी, श्री जी का मन्दिर, श्री टीकारी रानी की ठाकुर बाड़ी · श्री राधामाधव का मन्दिर, श्री राधाविनोद का मन्दिर, श्री लालाबाबू का मन्दिर, श्री श्यामसुन्दर का मन्दिर, श्री साक्षी गोपाल का मन्दिर, सवामन शालग्राम, निधिवन, गरुड़ गोविन्द, नरीसेमरी, राधा स्नेह बिहारी ।
३- महावन:- ब्रह्माण्ड घाट, ८४ खंभा, चिंता हरण मंदिर।
४- गोकुल:- नंद यशोदा महल, नवनीत प्रिया जी मन्दिर ।
५- बलदेव:- दाऊजी मन्दिर, बलभद्र कुंड
६- गोवर्धन के प्रमुख स्थल :- कुसुम सरोवर, गोवर्धनकुसुम सरोवर, चकलेश्वर महादेव, जतीपुरा, दानघाटी, पूंछरी का लौठा, मानसी गंगा, राधाकुण्ड · श्याम कुण्ड · हरिदेव जी मन्दिर, उद्धव कुण्ड, ब्रह्म कुण्ड ।
७- बरसाना:- राधारानी मंदिर, कीर्तिकिशोरी मंदिर ।
८- नन्दगाँव:- नन्दजी मंदिर ।
९- काम्यवन:- केदारनाथ मंदिर, काम्यवन फिसलनी शिला · भोजनथाली · व्योमासुर गुफा · गया कुण्ड · गोविन्द कुण्ड · घोषरानी कुण्ड · दोहनी कुण्ड · द्वारका कुण्ड · धर्म कुण्ड · नारद कुण्ड · मनोकामना कुण्ड · यशोदा कुण्ड · ललिता कुण्ड · लुकलुकी कुण्ड · विमल कुण्ड · विहृल कुण्ड · सुरभी कुण्ड · सेतुबन्ध रामेश्वर कुण्ड ।
१०- कोकिला वन - शनिदेव मंदिर , नवग्रह मंदिर, शनिकुंड।
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ब्रजभाषा ब्लॉग - ४
ब्रज के पेड़, पक्षी, जीव -जंतु, फसल:-
प्रियता और अप्रियता की दृष्टि से भी पक्षियों को दो वर्गों में विभाजित किया सकता है। लोकप्रिय पक्षियों में तोता, मैंना, मोर, कोयल, पपीहा, नीलकंठ, कबूतर, चकोर, चकवा, खंजन, शकुन चिड़िया आदि हैं। अप्रिय पक्षियों में कोवा, चील, उल्लू, गिद्ध आदि हैं। उक्त समस्त पक्षी ब्रज मंडल में बहुतायत में पाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त भी बहुत सारे पक्षी ब्रज में पाये जाते हैं। ब्रज संस्कृति और ब्रज साहित्य में पालतू और लोकप्रिय पक्षियों का विशेष महत्त्व है। ऐसे पक्षियों में तोता और मैंना विशेष उल्लेखनीय है। ये दोनों पक्षी अपनी बोली अथवा वाणी के कारण ब्रज में सदा से बड़े लोकप्रिय रहे हैं।
श्रीकृष्ण की नगरी मथुरा में यमुना के तटों पर स्थानीय पक्षियों के साथ प्रवासी पक्षियों ने नया बसेरा बना लिया है। इससे यमुना के तटों पर अठखेलियां करते पक्षियों की सुंदरता देखते ही बनती है। विश्राम घाट, गोकुल बैराज के घाट सहित विभिन्न स्थानों पर यह खुशनुमा माहौल देखने को मिल रहा है। यमुना में अठखेलियां करते विदेशी पक्षी यहां आने वाले श्रद्धालुओं के लिए आकर्षण का केंद्र बन रहे हैं।
ब्रज में कई तरह के वृक्ष पाए जाते हैं, जैसे कि कदंब, अमलतास, पीपल, बरगद, नीम, मौलश्री, कनेर, केतकी, केवड़ा, गुलाब, चमेली, चंपा, जुही, बेला, कमल, कुमुद, कुमुदिनी वगैरह ।
ब्रज के वृक्षों की खास बातें-
ब्रज के वनों में कई तरह के वृक्षों की प्रजातियां पाई जाती हैं । इन वृक्षों से ब्रज का नैसर्गिक सौंदर्य बढ़ता है और भौतिक समृद्धि भी होती है ।
ब्रज के वनों में श्रीकृष्ण काल के पेड़ों को लगाने की योजना बनाई गई है । ब्रज में कदंबखंडियाँ भी थीं, जहां बड़ी संख्या में कदंब के पेड़ थे । मथुरा के गोकुल में करीब 6,000 साल पुराना कदंब का पेड़ है । मान्यता है कि इसी पेड़ के नीचे माता यशोदा ने ब्रह्मांड के दर्शन किए थे ।
फलदार वृक्ष - ब्रज में मीठे और खटटे दोनों प्रकार के फलदार वृक्ष पाये जाते हैं। मीठे फल वृक्षों में अमरुद, आम, केला,कैत, खजूर, खिरनी, बेर, बेल, शहतूत, श्री फल आदि हैं। खटटे फल वाले वृक्षों में आंवला, इमली, कमरख, करोंदा, जामुन, नारंगी, नीबू आदि उल्लेखनीय हैं।
ब्रज में कई स्थानों पर दो-दो, तीन-तीन सौ वर्षों के पुराने बट वृक्ष मिलते हैं। ब्रज में कई बट वृक्षों की परम्परागत प्रसिद्धि भी रही है। श्री जगतनंद ने अपने काल के १० प्रसिद्ध बट वृक्षों का नामोल्लेख किया है। वह पिपरौली, जाव, रासौली, संकेत, परासोली, भांड़ीरवन स्थित बटों के अतिरिक्त अक्षय वट, वंशी वट, विशाल वट और श्याम वट थे। १ श्रीकृष्ण ने जिन स्थानों में विशिष्ट लीलाएँ की थी, उनकी स्मृति में वहां वे वट वृक्ष लगाये थे।
शमी अर्थात छोंकर के वृक्ष का बल्लभ संप्रदाय में अधिक महत्व माना गया है। सर्व श्री बल्लभाचार्य और विठठ नाथ जी ने ब्रज में जो धार्मिक प्रवचन किये थे, वे प्राय इन्हीं वृक्षों के नीचे बैठ कर हुए थे। उनकी अधिकांश बैठकें भी इन्हीं वृक्षों के नीचे बनी हुई हैं। तमाल के वृक्ष भी ब्रज के अनेक लीला स्थलों में मिलते हैं। इसका उल्लेख ब्रज के भक्त कवियों ने कृष्ण लीला के विविध प्रसंगों में किया है।
पिपरौली वट, जाव वट, रसौली वट जानि।
अक्षय वट, संकेत वट, पारासोलि वट मानि।।
वंशी वट, भांडीर वट, विलास वट अरु श्याम।
ये दस वट, ब्रज भूमि में, 'जगतनंद' के घाम।। (बृज वस्तु वर्णन)
ब्रज की फसलें - मोटा अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, मक्का, मूँग, उडद आदि के साथ कपास और गन्ने की उपज तैयार होती है। पहिले शरद ॠतु में भी वर्षा होती थी, जिसे ब्रज में माहोट कहा जाता है, जिससे 'रबी' की फसल में गेंहूँ, जौ, मटर, सरसों, दूआँ आदि की अच्छी पैदावर हुआ करती थी। यमुना की खादर के रेतीले भाग में ककड़ी, खरबूजे, तरबूजे, काशीफल आदि पैदा होते हैं और शेष भाग में झाऊ, कांस, करील, झरबेर, आदि झाड़िया उत्पन्न होती हैं। झाऊ टोकरी निर्माण, काँस छप्पर निर्माण में उपयोग होते हैं। पहिले ब्रज में नील की उपज होती थी उसे बनाने के यहाँ कई कारखाने भी थे। जब से नील की अपेक्षा अन्य पदार्थों से नकली रंग बनने लगे हैं, तब से नील की आवश्यकता कम हो गई है। फलत यहाँ के नील के कारखाने भी बंद हो गये हैं और किसानों ने भी अन्य फसलों को अपना लिया है।
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ब्रजभाषा ब्लॉग संख्या - ५
ब्रज में यातायात के साधन-
ब्रज के यातायात के साधनों के रुप में रेल, मोटर, बैलगाड़ी, ऊँट गाड़ी, ताँगा, इक्का, रिक्शा आदि उपलब्ध हैं तथा ब्रज सीमान्तर्गत आगरा का खेरिया हवाई अड़ा भी उपलब्ध है।
रेलमार्ग - ब्रज में कई रेल मार्ग विधमान हैं, जिनके नाम - मध्य रेलवे, पश्चिम रेलवे, पूर्वोत्तर रेलवे और उत्तर रेलवे हैं। इन रेलमार्गों के द्वारा यात्री ब्रज भूमि तक आसानी से आते हैं और वापिस जाते हैं। साथ ही साथ इन मार्गों के द्वारा माल के ढोने का महत्वपूर्ण कार्य होता है।
मध्य रेलवे - यह मार्ग दिल्ली से आकर कोसी, मथुरा, आगरा, धौलपुर होता हुआ बम्बई तक जाता है।
पश्चिम रेलवे - इसका एक मार्ग दिल्ली से आकर कोसी, मथुरा, भरतपुर, बयाना होता हुआ बम्बई जाता है। दूसरा मार्ग आगरा, अछनेरा, भरतपुर होता हुआ अहमदाबाद पहुँचता है।
पूर्वोत्तर रेलवे - इसकी एक शाखा आगरा, अछनेरा, मथुरा, हाथरस, कासगंज होती हुई काठगोदाम जाती है और दूसरी शाखा कासगंज से कानपुर जाती है।
उत्तर रेलवे - इसकी एक शाखा दिल्ली से मथुरा, आगरा, टूंडला होती हुई कलकत्ता जाती है और दूसरी शाखा खुर्जा अलीगढ़, हाथरस, टूंडला, फिरोजाबाद, इटावा होते हुए कलकत्ता चली जाती है।
मथुरा से वृन्दाबन तक, हाथरस नगर से हाथरस जंकशन तक, आगरा से टूंडला तक आगरा से फतेहपुर सीकरी तक प्रधान रेलों के उपमार्ग भी हैं।
सड़क मार्ग - ब्रज में सड़कों के कच्चे और पक्के दोनों प्रकार के मार्ग हैं। पक्के मार्ग प्रधान नगरों में होकर जाते हैं तथा कच्चे मार्ग ग्राम और कस्बों में होकर जाते हैं। प्रधान पक्के मार्ग मथुरा-बरेली, मथुरा-अलीगढ़, मथुरा-ड़ीग, मथुरा-भरतपुर, दिल्ली-आगरा और अलीगढ़-एटा आदि हैं।
मथुरा-बरेली सड़क १२० मील लम्बी है। यह मथुरा से राया, मुरसान, हाथरस, सिकन्दरा राऊ, कासगंज, सोरों होते हुए बरेली जाती है।
मथुरा-अलीगढ़ सड़क ५० मील लम्बी है। यह मथुरा से राया सासनी होती हुई अलीगढ़ पहुँचती है।
मथुरा-ड़ीग सड़क २३ मील लम्बी है। यह मथुरा से गोबर्धन होते हुए डीग जाती है।
मथुरा-भरतपुर सड़क २४ मील लम्बी है। यह मथुरा से भरतपुर जाती है।
दिल्ली-आगरा सड़क १२७ मील लम्बी है। यह वास्तव में दिल्ली-बम्बई सड़क का भाग है, जो दिल्ली से फरीदाबाद, पलवल, होडल, कोसी, छाता, मथुरा, फरह, रुनकता होते हुए आगरा पहुँचती है।
अलीगढ़-एटा सड़क सुप्रसिद्ध ग्रान्ट ट्रंक रोड का भाग है, जो दिल्ली, बुलंदशहर, खुर्जा, अलीगढ़ से सिकन्दरा राऊ एटा कन्नोज होता हुआ आगे चला जाता है।
जल मार्ग - पहले जब रेल और बड़ी-बड़ी पक्की सड़कें नहीं थी, तब यमुना नदी के द्वारा बड़ी-बड़ी नावों से याता-यात किया जाता था। उस समय यमुना नदी में जल बहुत गहरा होता था, जिसके कारण उसमें बड़ी-बड़ी नावें चला करती थीं। उन नावों से यात्री और समान को आगरा, मथुरा से दिल्ली लाया ले जाया जाता था। छोटी नावें छोटी नदियों और नहरों में चला करती थी। जव से यमुना नदी से नहरें नीकाली गई हैं, तव से इसमें बहुत कम जल रहता है, अतः प्रत्येक ॠतु में नावों से यातायात करने में सुविधा नहीं हैं। फिर रेल और सड़कों से यातायात बढ़ जाने से जलमार्ग वैसे थी उपेक्षित है। अतः जलमार्ग अब बन्द हो चुका है।
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ब्रजभाषा ब्लॉग संख्या - ६
ब्रज के कुआं, झील, कुंड, बावड़ी, सरोवर आदि।
ब्रज की झील - ब्रज की सीमान्तर्गत कई छोटी-बड़ी झीलें हैं, जिनके नाम निम्न प्रकार हैं -
नोहझील - यह मथुरा जिलाकी भाँट तहसील के अन्तर्गत इसीनाम के ग्राम के समीप स्थित है
मोती झील - यह भी भाँट तहसील में भाँट ग्राम के पास स्थित है। यह अब यमुना नदी की धारा में समा गई है।
कीठम झील - यह दिल्ली आगरा राष्ट्रीय राजमार्ग सख्या-२ पर रुनकुता नामक ग्राम के समीप स्थित है। ब्रज की यह सरम्य स्थली सैलानियों के लिये आकर्षण का भी केन्द्र है।
मोती झील (दूसरी) - यह भरतपुर के समीप का जलाशय है, जो वहाँ की रुपारेल नामक छोटी नदी के पानी से भरा जाता है।
केवला झील - यह अत्यन्त सुंदर झील भरतपुर के समीप है, जो अजान बंध के जल से भरी जाती है। शरद ॠतु में इस झील के किनारे देश-विदेश के अगणित जल पक्षी विहार करने हेतु पहुँचते हैं। सैलानी उन पक्षियों को देखने के लिए यहां आते हैं।
मोती झील - यह वृन्दाबन रमणरेती में स्वामी अखंडानंद आश्रम का एक जलाशय है। यह कफी गहरा है और इसके फर्स सहित चारों ओर से पक्का है। इसमें उतरने के लिये चारों ओ सीड़िया निर्मित हैं, जो पस्तर की हैं। इसमें वर्षा के जल को संचित कर लिया जाता है, किन्तु वर्तमान समय में अल्प वर्षा के कारण खाली रह जाती है और इसमें जो अल्प जल रहता भी है तो वह वहुत पवित्र नहीं है।
ब्रज की सरोवरें - कवि जगतनंद के अनुसार चार सरोवर हैं जिनके नाम हैं - पान सरोवर, मान सरोवर, चंद्र सरोवर और प्रेम सरोवर।
पान सरोवर - ब्रज के नंदगाँव का यह एक छोटा जलाशय है। १
१. पान सरोवर, मान सरोवर और सरोवर चंद। प्रेम सरोवर चार ये, ब्रज में कहि जगनंद।। (ब्रजवस्तु वर्णन)
मानसरोवर - वृन्दावन के समीप यमुना के उस पार है। यह हित हरिवंश जी का प्रिय स्थल है यहाँ फाल्गुन में कृष्ण पक्ष ११ को मेला लगता है।
चन्द्र सरोवर - यह गोबर्धन के समीप पारासौली ग्राम में स्थित है। इसके समीप बल्लभ सम्प्रदायी आचार्यो द्वारा वैठकें आयोजित की जाती थीं और यह सूरदास जी का निवास स्थल है।
प्रेम सरोवर - यह बरसाना के समीप है। इसके तट के समीप एक मंदिर है। भाद्रपद मास में इस सरोवर पर नौका लीला का आयोजन और मेला होता है।
कुंड - ब्रज में अनेक कुंड हैं, जिनका अत्यन्त धार्मिक महत्व है। आजकल इनमें से अधिकांश जीर्ण-शीर्ण और अरक्षित अवस्था में हैं, जो प्राय सूखे और सफाई के अभाव में गंदे पड़े हैं। इनके जीर्णोद्धर और संरक्षण की अत्यन्त आवश्यकता है, क्योंकि इन कुंडों के माध्यम से भूगर्भीय जल स्तर की बड़ोतरी होती है साथ-ही-साथ भूगर्भीय जल की शुद्धता और पेयशीलता बड़ती है। कवि जगतनंद के अनुसार ब्रज में पुराने कुंडों की सख्या १५९ है तथा बहुत से नये कुंड भी हैं। उन्होंने लिखा है पुराने १५९ कुंडों में से ८४ तो केबल कामबन में हैं शेष ७५ ब्रज के अन्य स्थानों में स्थित है। १
१. उनसठ ऊपर एकसौ, सिगरे ब्रज में कुंड।
चौरासी कामा लाखौ, पतहत्तर ब्रज झुँड।।
औरहि कुंड अनेक है, ते सब नूतन जान।
कुंड पुरातन एकसौ उनसठ ऊपर मान।। (ब्रजवस्तु वर्णन)
ताल - ब्रज में बहुत से तलाब हैं जो काफी प्रसिद्ध हैं। कवि जगतनंद ने केवल दो तलाबों - रामताल और मुखारीताल का वर्णन प्रस्तुत किया है। १ इनके अतरिक्त भी बहुत से तालाब हैं, जिनमें मथुरा का शिवताल प्रसिद्ध है।
१. दोइ ताल ब्रज बीच हैं, रामताल लखिलेहु।
और मुखारी ताल है, 'जगतनंद' करि नेहु।। (ब्रजवस्तु वर्णन)
पोखर - ब्रज में अनेकों पोखर अथवा वरसाती कुंड हैं। कवि जगतनंद ने उनमें से ६ का नामोल्लेख किया है ।
वे पोखर हैं -
(१) कुसुमोखर (गोबर्धन)
(२) हरजी ग्वाल की पोखर (जतीपुरा)
(३) अंजनोखर (अंजनौ गाँव)
(४) पीरी पोखर और
(५) भानोखर बरसाना तथा ईसुरा जाट की पोखर (नंदगाँव) है। १ उनमें कुसुम सरोवर को ब्रज के जाट राजाओं ने पक्के विशाल कुंड के रुप में निर्मित कराया था।
१. पोखर षट् अब देखिलै, कुसमोखर जियजान। हरजी पोखर, आंजनी पीरीपोखर मान।
मानोखर अरु ईसुरा पोखर कहि 'जगनंद'। ब्रज चौरासी कोस में ब्रज कौ पूरनचन्द्र।।
बावडी - इनका प्रयोग ब्रज प्रजा पेय जल के प्राप्त करने के लिये करती थी। ब्रज में अभी भी कई प्रसिद्ध और सुन्दर बावड़ी है, किन्तु ये जीर्ण अवस्था में पड़ी है। इनमें मुख्य निम्न वत हैं - ज्ञानवापी (कृष्ण जन्मस्थान, मथुरा), अमृतवापी (दुर्वासा आश्रम, मथुरा), ब्रम्ह बावड़ी (बच्छ बन), राधा बावड़ी (वृन्दाबन) और कात्यायिनी बावड़ी (चीरधाट) हैं।
कूप - ब्रज में वहुसख्यक कूप हैं जिनका उपयोग आज भी ब्रजवासी पेय जल प्राप्त करने के लिये करते हैं। ब्रज मंडल के अधिकांश ग्रामों की आवसीय परिशर में भूगर्भीय जल खारी है अथवा पीने के लिये अन उपयोगी है। अतः इस संदर्भ में कहावत प्रचलित कि भगवान कृष्ण ने बचपन की सरारतों के चलते ब्रज के ग्रामों की आवसीय परिशर के भू-गर्भीय जल को इस लिये खारी (क्षारीय) और पीने के लिये अन उपयोगी बना दिया ताकि ब्रज गोपियाँ अपनी गागर लेकर ग्राम से बाहर दैनिक पेय जल लेने के लिये निकले और कृष्ण उनके साथ सरारत करें, उनकी गागरों को तोड़ें और उनके साथ लीला करें। आज भी ब्रज ग्रामीण नारियों को सिर पर मटका रख ग्राम से बाहर से जल लाते हुए समुहों के रुप में ग्राम बाहर के पनधट और कूपों पर देखा जा सकता है। पेय जल के साथ-साथ इन कूपों का ब्रज में धार्मिक महत्व भी है। कवि जगतनंद के समय में १० कूप अपनी धार्मिक महत्ता के निमित्त प्रसिद्ध थे। इनके नाम इस प्रकार वर्णित हैं -
(१) सप्त समुद्री कूप,
(२) कृष्ण कूप,
(३) कुब्जा कूप (मथुरा),
(४) नंद कूप (गोकुल और महाबन),
(५) चन्द्र कूप (चन्द्र सरोवर गोबर्धन),
(६) गोप कूप (राधा कुंड),
(७) इन्द्र कूप (इंदरौली गाँव-कामबन),
(८) भांडीर कूप (भाडीर बन),
(९) कर्णवेध कूप (करनाबल) और वेणु कूप (चरण पहाड़ी कामबन) १
१. ब्रज में लख दस कूप हैं, सप्तसमुद्रहि जान। नंद कूप अरु इन्द्र कूप, चन्द्र कूप करिमान।।
एक कूप भांडीर कौ, करणवेघ कौ कूप। कृष्ण कूप आनंदनिघिस बेन कूप सुख रुप।।
एक जु कुब्जा कूप है, गोप कूप लखि लेहु। 'जगतनंद' वरननकरत ब्रज सौं करौ सनेह।।
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ब्रजभाषा ब्लॉग संख्या- ७
🔸नृत्य व नाट्य रुप-
वर्तमान रास-नृत्य
कत्थक नृत्य और रास
नरसिंह नृत्य
चुरकुला नृत्य
होली नृत्य
🔸ब्रज का संगीत - भारतीय कला एवं संस्कृति की चिंतनधारा सदैव से आध्यात्मवादी रही है। आध्यात्मवाद में "आनंदमय' की प्रतिष्ठा होती है और इस आनंदमय से "परमब्रह्म' की प्राप्ति होती है। अतः सर्वप्रथम यदि आनंदमय की उपलब्धि के साधन को खोजा जाए, तो उसका मूल है "संगीत'। संगीत परमानंद की पराकाष्ठा पर पहुँचाकर परमतत्व की अनुभूति एवं साक्षात्कार कराने की अपूर्व क्षमता रखता है। रवींद्रनाथ टैगोर ने भी परमब्रह्म तक पहुँचने के लिए संगीत को ही एकमात्र साधन कहा है -- "Only as a musician can I come in to thy presence.'' संगीत हमारी चित्तवृत्ति को अंतर्मुखी बनाकर हमें आत्मस्वरुप का नैसर्गिक बोध कराता है और आत्मस्वरुप का यह बोध ही मनुष्य को परमतत्व से जोड़ता है।
संगीत की उत्पत्ति-
जब परमतत्व अनादि है, तो संगीत भी अनादि है। यों भारतीय संगीत का मूल रुप वेदों में परिलक्षित होता है। वेद भी अनादि अपौरुषेय कहे गए हैं। वैसे भारतीय संगीत की उत्पत्ति एवं विकास की अनेक कथाएँ प्रचलित हैं, किंतु आदिनाम एवं वेद से ही भारतीय संगीत के जन्म का संबंध मानना उचित जान पड़ता है -
आदिनाद अनहद भयो, ताते उपज्यो वेद।
पुनि पायो वा वेद में, सकल सृष्टि को भेद।।
उपर्युक्त पंक्तियों में आदि ( अनहद ) नाद से वेद की उत्पत्ति बताई गई है, अतः इस प्रकार से संगीत की सत्ता वेद से भी पूर्व सिद्ध होती है, क्यों नाद ही संगीत है, संगीत ही नाद है।
इस विराट ब्रह्मांड के पावन दिव्य घोष निनाद से मुखरित मानव का यह आत्मानुभूत सुललित संगीत अमृत का वह स्रोत है, जो प्राण एवं आत्मा को नवचेतना प्रदान करता है। यही संगीत पुरुषार्थ चतुष्टय ( धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ) का एकमात्र साधन है। एसे संगीत ( गीत ) के माहात्म्य की प्रशंसा करने में किसकी वाणी समर्थ हो सकती है --
तस्य गीतस्य माहात्म्यं के प्रशंसितुमीशते।
धर्मार्थकाममोक्षाणामिदमेवैक साधनम्।।
इसी कारण भारतीय संस्कृति में पुरातन काल से ही संगीत का अपना विशेष महत्व रहा है। इस महान कला के आदि आचार्य भरतमुनि हैं। इनके नाट्यशास्र में संगीत का वास्तविक स्वरुप मुखरित हुआ है। संगीत कला की मीमांसा का आदिशास्र "नाट्यशास्र' ही है। उसके पश्चात तो फिर मतंग, नंदिकेश्वर, शारंगदेव आदि के ग्रंथ भी भारतीय संगीत का विशद विवेचन प्रस्तुत करते हैं। यहाँ तक ध्यातव्य है कि भरतमुनि के नाट्यशास्र की रचना के पूर्व भी संगीत कला अपने पूर्ण विकसित रुप में नारद, स्वाति, तंडु, वासुकि आदि मनीषियों की वाणी में व्याप्त थी। ऐसी गौरवमयी संगीत कला पर ब्रज का क्या प्रभाव पड़ा, यह विषय यहाँ विचारणीय है।
संगीतमय ब्रज-
भगवान कृष्ण की ब्रजभूमि का कण- कण संगीतमय रहा है। संस्कृति एवं साहित्य के साथ- साथ कला का भी केंद्र अत्यंत पुरातन काल से ब्रज वसुंधरा ही है। नाट्यशास्र एवं संगीत- रत्नाकर जैसे प्रामाणिक ग्रंथों के युग के संगीत का यथार्थ स्वरुप जानने का कोई साधन यदि हमें प्राप्त हो सकता है, तो वह है - ब्रज का साहित्य एवं संगीत। मुगल युग में अनेक प्राचीन संगीत- ग्रंथ नष्ट हो गए थे। जो ग्रंथ सौभाग्यवश आज उपलब्ध हैं, उन्हें सुदीर्घकाल तक विद्वत्परंपरा ने कंठस्थ कर सुरक्षित रखा तथा सुविधा न अवसर पाकर उन्हें पुनः लिपिबद्ध करलिया गया। किंतु उनमें भी प्राचीन वैदिक संगीत का यथार्थ स्वरुप ज्यों का त्यों स्पष्ट न हो सका। उस संगीत की वास्तविक गरिमा यदि सुरक्षित एवं विकसित हो सकी, तो उसका श्रेय ब्रज को ही है। ब्रज के भक्त, संगीतज्ञ, कवि, संत आदि ने युग- युग में संगीत का सांगोपांग विकास एवं प्रसार किया। इसी कारण भारतीय संगीत पर ब्रज- वसुधा की अमिट छाप परिलक्षित होती है।
यदि यह कहा जाए कि भारतीय संगीत ब्रज- संस्कृति का एक मुख्य एवं अविभाज्य अंग है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। शास्रीय संगीत के पद, ख्याल, ध्रुपद आदि ब्रजभाषा में ही सुने व रचे जाते हैं। यह दूसरी बात है कि मुगलकाल में ख्याल उर्दू की शब्दावली से अछूते न रह सकें हों। किंतु पद एवं ध्रुपद परंपरा अक्षुण्ण रही। यह भी दृष्टव्य एवं आश्चर्यजनक बात है कि अनेक मुसलमान संगीतज्ञों, कवियों ने भी ब्रजभाषा में अनेक बंदिशों एवं कविता की रचना की।
जिस ब्रजभूमि में वेणुधर नटवर नागर कृष्ण जन्में हों, जिस ब्रज में उनकी मुरली के स्वर गूँजे हों, जिस ब्रजधाम के कुँजों में महारास थिरका हो, जिस ब्रज- वसुंधरा में पतित- पावनी यमुना के तट पर कल- कल ध्वनि में स्वर मिलाकर मनीषियों ने साम- गान किया हो, उस ब्रजधरा का प्रभाव भारतीय संगीत पर न पड़ा हो, यह कैसे संभव हो सकता है ? कहना न होगा कि ब्रज तो भारत की सांस्कृतिक आत्मा है।
हरिदासजी की देन:- इसमें संदेह नहीं कि ब्रज के प्राचीन भक्त संगीतज्ञों की कला का प्रभाव भारतीय संगीत पर पदे- पदे पड़ा है। उन्हीं में से अग्रगण्य, वृंदावन के निधिवन निकुंज निवासी स्वामी श्री हरिदास संगीत के ऐसे महान आदर्श थे, जिनके समक्ष राग- रागिनियाँ आज्ञापालन के लिए तत्पर रहते थे। मेघ मल्हार के गायन पर वर्षा हो जाना, दीपक राग गाने पर दीप प्रज्वलित हो जाना, श्री बहार, बसंत आदि राग गाने पर वृक्षों पर बहार आ जाना आदि उनकी संगीत- सिद्धि के जीवंत परिणाम थे। ये सिद्धियाँ स्वामी हरिदास की कृपा से तानसेन, बैजू बावरा एवं गोपाल नायक को भी प्राप्त हुई थीं। हरिदासजी का संगीत दिव्य था, अनंत था, अद्भुत था। उनके रचे हुए अनेकानेक पद, ध्रुपद आदि आज भी श्रद्धापूर्वक गाए जाते हैं और जब तक पृथ्वी पर संगीत विद्यमान है, गाए जाते रहेंगे।
स्वामी हरिदास की रचनाओं में गायन, वादन और नृत्य संबंधी अनेक पारिभाषिक शब्द, वाद्ययंत्रों के बोल एवं नाम तथा नृत्य की तालों व मुद्राओं के स्पष्ट संकेत प्राप्त होते हैं। स्वामीजी के ध्रुपद शैली में गायन में से ....एक सा अट्ठाइस माने जाते हैं, जिसमें से एक सा दस पद "केलिमाल' के नाम से तथा अठारह पद "सिद्धांत के पद' के नाम से प्रसिद्ध हैं। हरिदासजी ने ब्रज के लोकनाट्य "रास' का नवीन रुप में स्वस्थ प्रचार करने का श्रेय भी प्राप्त किया है। रास की अत्यधिक प्राचीन परंपरा ब्रज में रही है। भारतीय संगीत का समग्र रुप ब्रज का रास ही है। रास को नवीन रुप में अनुप्राणित करने का श्रेय हरिदासजी के अतिरिक्त श्री हितहरिवंश, श्री नारायण भट्ट, श्री घमंडदेव एवं श्री वल्लभाचार्य को भी है।
वल्लभाचार्य का संरक्षण:- श्री वल्लभाचार्य द्वारा प्रवर्तित पुष्टिमार्ग के भारतीय संगीत को कितना संरक्षण एवं प्रश्रय दिया है, यह कौन सहृदय नहीं जानता है ? इस पुष्टिमार्गीय वल्लभकुल में अनेक आचार्य उच्चकोटि का कीर्तन करने वाले गायक हुए हैं, यथा -- श्री विठ्टलनाथ, श्री पुरुषोत्तमराय, श्री गोकुलनाथ, श्री कल्याणराय, श्री द्वारकेश प्रभु आदि। इनके द्वारा रचित पद आज भी श्रद्धापूर्वक गाए जाते हैं। इन पदों में संगीतात्मकता की गहराई है। इन गेय पदावलियों को रस, वातावरण, अवसर आदि के अनुकूल राग- रागिनियों में बद्ध किया गया है। इन पदों में स्वरों के साथ- साथ भाषा- माधुर्य एवं नाद- सौंदर्य भी कम नहीं है।
संगीत शिरोमणि सूरदास:- अष्टदास के सभी भक्तकवि संगीतज्ञ एवं कीर्तनकार थे, जिनकी रचनाओं में काव्य एवं संगीत का मणिकांचन संयोग अभिलक्षित होता है। सूरदास, नंददास, कुंभनदास, कृष्णदास, परमानंददास, चतुर्भुजदास, गोविंदस्वामी एवं छीतस्वामी -- ये आठ अष्टछाप के महासंगीतज्ञ कविगण थे, जिनके पदों के शब्द- माधुर्य एवं संगीत- सौंदर्य के कारण भारतीय संगीत पर समग्र विश्व मोहित हे। ये सभी भक्त देवाराधन हेतु पद रचकर गाया करते थे। अपने इष्ट के लिए समयानुकूल नित्य नए पदों की रचना कर उन्हें इकतारे पर गाते हुए सूरदास की संगीत- मंदाकिनी में अवगाहन करते हुए कौन सहृदय विभोर नहीं हो जाता है सूरदास के विषय में किसी कवि ने ठीक ही लिखा है -
हाथ सितारों सुर कर् यों, मुख में मधुरा बोल।
कान्हरे के रंग में, सूरदास को चोल।
सूरदास के शब्दों में आराध्य को समर्पित संगीत इस भवसागर से उबारने का श्रेष्ठ साधन है --
नीके गाय गुपालहि मन रे।
जा गाये निर्भय पद पाई अपराधी अनगन रे।।
गायो गीध अजामिल गतिका, गायो पारथ धन रे।
गायो स्वपच परम अघ पूरन, सुत पायो बाम्हन रे।।
गायो ग्राह- ग्रसित गज जल में, खंभ बंधे तैं जन रे।
गायें "सूर' कौन नहिं उबरो, हरि परिपालन पन रे।।
संगीत के माहात्म्य के विषय में बताते हुए सूरदास ने संगीत कला को मन की चित्तवृत्तियों का निरोध करने के साधन के रुप में ग्रहण किया। सूरदास ने संगीत को आध्यात्मिक लोक में प्रविष्ट कराया। ब्रज की पुण्य भूमि पर संगीत की साधना करते हुए सूरदास ने भारतीय संगीत को हरिचरणों में अर्पित कर उसे दिव्य रुप प्रदान किया। सूर ने संगीत के सात स्वरों की प्रधानता को अपने काव्य में विशेष स्थान दिया है --
स रि ग मा प ध नि सां में सप्त सुरनि गाई।।
अतीत अनागत संगीत बिच तान मिलाई।
"सूर' ताल- नृत्य ध्याई, पुनि मृदंग बजाई।।
सूर के अधिकांश पद "ध्रुपद' की शैली में गाए जा सकते योग्य हैं। नाट्यशास्र के अनुसार वर्ण, अलंकार, गान- क्रिया, यति, वाणी, लय आदि जहाँ ध्रुव रुप में परस्पर संबद्ध रहें, उन गीतों को "ध्रुवा' कहा गया है। जिन पदों में उक्त नियम का निर्वाह हो रहा हो, उन्हें "ध्रुवपद' अथवा " ध्रुपद' कहा जाता है। सूर द्वारा रचित ध्रुवपद अपूर्व नाद- सौंदर्य, गमक एवं विलक्षण शब्द- योजना से ओत- प्रोत अभिलक्षित होते हैं। सूर के ज्ञान के विषय में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने "भ्रमरगीत सार' की भूमिका में लिखा है -- "सूर ने ऐसे रागों का निर्माण किया, जिनका नामकरण आज तक नहीं हुआ।'' सूरसागर में उल्लिखित रागों में से अनेक तो आज व्यवहार में भी नहीं हैं, यथा -- देसाख, सानुत, कर्नाट, वैराठी, षटपदी, गुंडमलार, रामगिरि, राज्ञी हठीली, राज्ञी मलार, राज्ञी श्री हठी आदि। इससे सूर के उत्कृष्ट संगीत ज्ञान का पता चलता है।
अष्टछाप के ही भक्तकवि कृष्णकवि कृष्णदास के पदों में संगीत के रागात्मक पक्ष के दर्शन होते हैं।
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ब्लॉग संख्या - ८
▪️ मथुरा की नदियाँ-
गर्गसंहिता में यमुना के पचांग - १.पटल, २. पद्धति, ३. कवय, ४. स्तोत्र और ५. सहस्त्र नाम का उल्लेख है।
▪️ब्रज पुराने १६ घाट- कवि जगतनंद द्वारा उल्लखित पुराने घाटों के नाम निम्नलिखित हैं -
(१) व्रमहांड घाट (महाबन), (२) गौ घाट, (३) गोविन्द घाट, (४) ठकुरानी घाट, (५) यशोदा घाट, (६) उत्तरेश्वर घाट (गोकुल), (७) वैकुंठ घाट, (८) विश्रांत घाट, (९) प्रयाग घाट, (१०) बंगाली घाट (मथुरा), (११) राम घाट, (१२) केशी घाट, (१३) विहार घाट, (१४) चीर घाट, (१५) नंद घाट औ (१६) गोप घाट (वृन्दाबन)
▪️ ब्रज के पर्वत - श्री गिरिराज पर्वत, ब्रह्मांचल पर्वत।
ब्रज में पर्वत- ब्रज में 5 पर्वत या पहाड़िया हैं
• गोबर्धन • नंदगाँव • बरसाना • कामबन • चरण
ब्रज के 12 वन-
(१) मधुबन, (२) तालबन, (३) कुमुदबन, (४) बहुलाबन, (५) कामबन, (६) खिदिरबन, (७) वृन्दाबन, (८) भद्रबन, (९) भांडीरबन, (१०) बेलबन, (११) लोहबन और (१२) महाबन
ब्रज के उपवन- ब्रज के पुराण प्रसिद्ध २४ उपबनों के नाम कवि जगतनंद ने इस प्रकार लिखे हैं -
(१) अराट (अरिष्टबन), (२) सतोहा (शांतनुकुंड), (३) गोबर्धन, (४) बरसाना, (५) परमदरा, (६) नंदगाँव, (७) संकेत, (८) मानसरोवर, (९) शेषशायी, (१०) बेलबन, (११) गोकुल, (१२) गोपालपुर, (१३) परासोली, (१४) आन्यौर, (१५) आदिबदरी, (१६) विलासगढ़, (१७) पिसायौ, (१८) अंजनखोर, (१९) करहला, (२०) कोकिला बन, (२१) दघिबन (दहगाँव), (२२) रावल, (२३) बच्छबन और (२४) कौरबबन
ब्रज की कदमखण्डी- ब्रज में संरक्षित बनखंडो के रूप में कुछ कदंबखंडियाँ थी, जहाँ बहुत बड़ी संख्या में कदंब के वृक्ष लगाये गये थे। उन रमणीक और सुरभित उपबनों के कतिपय महात्माओं का निवास था। कवि जगतनंद ने अपने काल की चार कदंवखंडियों का विवरण प्रस्तुत किया है। वे सुनहरा गाँव की कदंबखंडी, गिरिराज के पास जती पुरा में गोविन्द स्वामी की कदंबखंडी, जलविहार (मानसरोवर) की कदंबखंडी और नंदगाँव (उद्धवक्यार) की कदंबखंडी थी।
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ब्रजभाषा ब्लॉग संख्या - ९
भोजन, मिठाई, वेशभूषा-
ब्रज के भोजन में बेदमी पुरी, डुबकी वाले आलू, पेड़ा, कचौड़ी, दही अरबी झोर, खिचड़ी, पंजीरी, दालमोठ, तिलपट्टी जैसी चीज़ें शामिल हैं । ब्रज के भोजन की खासियत यह है कि यह ज़्यादातर सादा और शाकाहारी होता है।
ब्रज के कुछ प्रसिद्ध व्यंजन
बेदमी पुरी
डुबकी वाले आलू
मथुरा पेड़ा
मथुरा हींग कचौड़ी
वृन्दावन दही अरबी झोर
वृन्दावन खिचड़ी
जन्माष्टमी पंजीरी
पंचामृत प्रसाद
आगरा पेठा
आगरा दालमोठ
ब्रज के भोजन की खास बातें-
ब्रज के लोग चटपटा खाना बहुत पसंद करते हैं.
चटपटे खाद्य पदार्थों में तवे वाली सब्ज़ियां और चाट की खट्टी-मीठी चीज़ें शामिल हैं ।
ब्रज में माखन मिश्री का भी बहुत प्रचलन है. यह ताज़ा मथकर बनाए गए मक्खन और चीनी से बनाया जाता है ।
वेशभूषा- बुजुर्गों में पुरुषों को श्वेत धोती-कुर्ता कंधे पर गमछा या शाल और सर पर पगड़ी तथा नारियों को लहंगा-चुनरी अथवा साड़ी, ब्लाउज सहित बच्चों को झंगा-झंगली, झबला पहनावों में सामान्य रूप से देखा जाता है। सर्दियों में रूई की बण्डी, खादी के बन्द गले का कोट, सदरी और ऊनी स्वेटर भी परम्परागत पुरुषों के पहनावे हैं। अधिक सर्दी के दिनों में पुरुष लोई अथवा कम्बल भी ओढ़ते हैं। महिलायें स्वेटर पहनने के अलावा शॉल ओढ़ती हैं। पैरों में सामान्यत: जूते, चप्पल पहने जाते हैं। आधुनिकता के दौर में युवक जीन्स, पेन्ट–शर्ट, सूट और युवतियों पर मिडी, सलवार सूट, टी शर्ट आदि आधुनिक पहनावों का असर है। साधुओं की वेशभूषा में सामान्यत: केसरिया, श्वेत अथवा पीत वस्त्रों का चलन है।
🔸भोजन- ब्रज का विशेष भोजन जो दाल बाटी चूरमा के नाम से जाना जाता है, यह ब्रजवासियों का विशेष भोजन है। समारोह, उत्सवों, और सैर सपाटों एवं विशेष अवसरों पर यह भोजन तैयार किया जाता है और लोग इसका आनन्द लेते हैं। यह भोजन पूरी तरह से देशी घी में तैयार होता है। इसके अलावा मिस्सी रोटी (गुड़चनी), मालपुआ आदि भी बहुतायत में खाया जाता है।
🔸मिठाई- ब्रज में मिठाईयों का बहुत महत्त्व है। ब्रज की सबसे प्रसिद्ध मिठाई है पेड़ा। ब्रज जैसा पेड़ा कहीं नहीं मिलता। ब्रज में मथुरा के पेड़े से अच्छे और स्वादिष्ट पेड़े दुनिया भर में कहीं भी नहीं मिलते हैं। आप यदि पारम्परिक तौर पर मथुरा के पेड़े का एक टुकड़ा भी चखते हैं तो कम से कम चार पेड़े से कम खाकर तो आप रह ही नहीं पायेंगे। ब्रज में ज़्यादातर व्यक्तियों की पसंदीदा चीज़ मिठाई होती है। ब्रज के लोग मिठाई खाने के बहुत शौक़ीन होते हैं। वैसे तो ब्रज की हर मिठाई प्रसिद्ध होती है, लेकिन पेड़ा मुख्य है। पेड़े के अलावा घेवर , खुरचन, रबड़ी, सोनहलवा, इमरती आदि प्रमुख हैं।
परम्परागत रूप से ब्रजवासी सानन्द जीवन व्यतीत करते हैं। नित्य स्नान, भजन, मन्दिर गमन, दर्शन–झांकी करना, दीन-दु:खियों की सहायता करना, अतिथि सत्कार, लोकोपकार के कार्य, पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम, नारियों का सम्मान व सुरक्षा, बच्चों के प्रति स्नेह, उन्हें अच्छी शिक्षा देना तथा लौकिक व्यवहार कुशलता उनकी जीवन शैली के अंग बन चुके हैं। यहाँ कन्या को देवी के समान पूज्य माना जाता है। ब्रज वनितायें पति के साथ दिन-रात कार्य करते हुए कुल की मर्यादा रखकर पति के साथ रहने में अपना जीवन सार्थक मानती है। संयुक्त परिवार प्रणाली साथ रहने, कार्य करने ,एक-दूसरे का ध्यान रखने, छोटे-बड़े के प्रति यथोचित सम्मान, यहाँ की सामाजिक व्यवस्था में परिलक्षित होता है। सत्य और संयम ब्रज के लोक जीवन के प्रमुख अंग हैं।
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ब्रजभाषा ब्लॉग संख्या - ९
ब्रज में कई संप्रदायों के लोग रहते हैं, जिनमें कृष्ण भक्ति के कई संप्रदाय भी शामिल हैं ।
कृष्ण भक्ति के संप्रदाय बल्लभ सम्प्रदाय, राधाबल्लभ सम्प्रदाय, गौड़ीय सम्प्रदाय ।
ब्रज के अन्य संप्रदाय
श्री सम्प्रदाय, जिसे वर्तमान में श्री "रामानन्दी सम्प्रदाय" के नाम से जाना जाता है ।
ब्रह्म सम्प्रदाय, जिसके आद्य प्रवर्तक चतुरानन ब्रह्मादेव और प्रमुख आचार्य माधवाचार्य हुए ।
छः सम्प्रदायों का वर्णन -
1 श्री रामानुज सम्प्रदाय
2 श्री निम्वार्क सम्प्रदाय
3 श्री माध्व सम्प्रदाय
4 श्री राधावल्लभ सम्प्रदाय
5 श्री रामानंद सम्प्रदाय
6 श्री गौडीय सम्प्रदाय
वल्लभ सम्प्रदाय भक्ति का एक संप्रदाय है, जिसकी स्थापना महाप्रभु वल्लभाचार्य ने की थी। इसे ‘वल्लभ संप्रदाय’ या ‘वल्लभ मत’ भी कहते हैं। चैतन्य महाप्रभु से भी पहले ‘पुष्टिमार्ग’ के संस्थापक वल्लभाचार्य श्री राधा जी की पूजा करते थे, जहाँ कुछ संप्रदायों के अनुसार, भक्तों की पहचान राधा की सहेलियों (सखी) के रूप में होती है, जिन्हें राधा-कृष्ण के लिए अंतरंग व्यवस्था करने के लिए विशेषाधिकार प्राप्त होता है।
षड्गोस्वामी (छः गोस्वामी) से आशय छः गोस्वामियों से है जो वैष्णव भक्त, कवि एवं धर्मप्रचारक थे। इनका कार्यकाल १५वीं तथा १६वीं शताब्दी था। वृन्दावन उनका कार्यकेन्द्र था। चैतन्य महाप्रभु ने जिस गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय की आधारशिला रखी गई थी, उसके संपोषण में उनके षण्गोस्वामियों की अत्यंत अहम् भूमिका रही। इन सभी ने भक्ति आंदोलन को व्यवहारिक स्वरूप प्रदान किया। साथ ही वृंदावन के सप्त देवालयों के माध्यम से विश्व में आध्यात्मिक चेतना का प्रसार किया।
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ब्रजभाषा ब्लॉग संख्या - ११
ब्रज के राजा -
ब्रज के राजाओं में दाऊ दयाल जी, वृषभान, और ब्रज राज देव के नाम शामिल हैं । दाऊ दयाल जी को ब्रज का राजा कहा जाता है । जब सभी देवी-देवता ब्रज छोड़कर चले गए। तब दाऊ बाबा ही ब्रज संरक्षक और रक्षक बनकर ब्रज में डटे रहे। इसीलिए उनको ब्रज का राजा माना जाता है। दाऊ बाबा बड़े ही सरल और दयालु स्वभाव के हैं। आज भी असंख्य श्रद्धालु बाग-बगीचों में बैठकर जब भांग घोटते या छानते हैं तो दाऊ बाबा को निमंत्रण जरूर देते हैं। और कहते हैं - "दाऊ जी महाराज ब्रज के राजा, भांग पीवै तो यहां आजा..."
ब्रज के राजा दाऊजी महाराज को ब्रज में मल्ल विद्या का जनक माना जाता है। बताया जाता है कि दाऊ बाबा मल्ल विद्या के बहुत शौकीन थे। और अपने अखाड़े में युवाओं को मल्ल विद्या के हुनर सिखाते थे। उन्हें ब्रज में मल्ल विद्या (कुश्ती दंगल) का जनक माना जाता है।
द्वापर युग में वृषभान ब्रज के सबसे बड़े राजा थे । वे राधा रानी के पिता थे । द्वापर युग में बृज के सबसे बड़े राजा वृषभान थे । उस समय इनके पास 11 लाख गाय थीं । वृषभान राधा रानी के पिता थे । नंद बाबा से भी ज्यादा गाय वृषभान के पास हुआ करती थीं. वृषभान बड़े राजा होने के साथ-साथ रावल गांव के मुखिया भी थे । नंद बाबा के पास में 9 लाख गाय थीं । बृजभान और नंद बाबा दोनों मित्र थे । नंद बाबा गोकुल पर राज किया करते थे । राधा रानी के पिता बृषभान रावल पर राज किया करते थे ।
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ब्रजभाषा ब्लॉग संख्या - १२
1857 में जब से भारत में स्वतंत्रता संग्राम की पहली चिंगारी फैली थी, तब से मथुरा-वृंदावन के जुड़वाँ शहरों ने देश की आज़ादी के संघर्ष में अपना अमूल्य योगदान दिया है। मथुरा का गांधी पार्क, अड़ीग किला और वृंदावन का प्रेम महाविद्यालय और मिर्जापुर धर्मशाला समेत कई अन्य शिक्षण संस्थान उनके प्रयासों और बलिदान के साक्षी हैं।
1857 के विद्रोह के दौरान, मथुरा के अदींग किले में 80 से अधिक स्वतंत्रता सेनानियों को फांसी पर लटका दिया गया था। स्वतंत्रता का जोश चरम पर था, युवा और बूढ़े, पुरुष और महिलाएं सभी में समान रूप से व्याप्त था। रैलियाँ और प्रदर्शन आम बात थी। सरकारी कार्यालयों को ध्वस्त कर दिया गया, और धन और हथियारों के लिए खजाने और ट्रेनों को लूट लिया गया। कैदियों को सरकारी जेलों से मुक्त कर दिया गया। पुलिस ने क्रूर बल का इस्तेमाल किया, लेकिन ब्रजवासियों ने पीछे हटने से इनकार कर दिया, इसके बजाय अपनी मातृभूमि की मुक्ति के लिए अपने प्राणों की आहुति देने का विकल्प चुना।
जैसे-जैसे संघर्ष गहराता गया, मथुरा-वृंदावन ब्रज में स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख केंद्रों के रूप में उभरे। 1921 में, आंदोलन के दिग्गजों, महात्मा गांधी, मोतीलाल नेहरू और मौलाना आज़ाद ने युवाओं को प्रेरित करने और समर्थन जुटाने के लिए मंदिर शहरों में 'जनसभाएँ' आयोजित कीं। 1922 के नागपुर सत्याग्रह और नमक मार्च (1930) में ब्रजवासियों का योगदान अच्छी तरह से प्रलेखित है। लाला लाजपत राय ने वृंदावन की मिर्जापुर धर्मशाला में और बाद में असहयोग आंदोलन के दौरान गांधी पार्क (मथुरा) में बैठकें आयोजित कीं।
ब्रज क्षेत्र में अपनी धमक से अंग्रेजों का बेहाल करने वाले शहीद क्रांतिकारी राजा देवी सिंह की कहानी बड़ी ही दिलचस्प व देशभक्ति से परिपूर्ण है। मथुरा जिले के कस्बा राया के गांव अचरु के रहने वाले देवी सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ एक मोर्चा खड़ा कर दिया। जिससे घबराकर अंग्रेजी हुकूमत के समय थाना राया का घेराव किया गया। बताते हैं कि 1857 के दौरान राजा देवी सिंह को थाना राया के पीछे पीपल के एक विशाल वृक्ष पर फांसी से लटका दिया गया और तभी से वह शहीद क्रांतिकारी के रूप में जाने गए। आज भी थाना राया के पीछे राजा देवी सिंह का स्मारक बना हुआ है।
साभार:- ओमप्रकाश शर्मा ब्रजवासी
ब्रजभूमि का सबसे बड़ा वन महर्षि 'सौभरि वन'
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